अरावली की खूबसूरत पहाड़ियों और किलों का शहर जयपुर. यहीं शाज़िया अपने अब्बू शब्बीर हसन ज़ैदी के साथ राजापार्क इलाके में बनी बड़ी-सी दो मंज़िला कोठी में रहती थी. कोठी के बाहर एक नेम प्लेट लगी हुई थी, जिस पर बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में दो बार एस.एच. ज़ैदी लिखा हुआ था. अक्सर घर आने वाले नए लोग इस गलती की ओर शब्बीर साहब का ध्यान खींचते
“अरे मियां आपने एक ही नाम दो बार लिखवा दिया?”
तो वो बड़े अंदाज़ मुस्कुराते और फिर अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहते –
“इस आशियाने में दो एस. एच. ज़ैदी रहते हैं- शाज़िया हसन ज़ैदी और शब्बीर हसन ज़ैदी.”
शब्बीर हसन ज़ैदी बड़े मार्बल व्यापारी थे. छह फुट लंबा क़द, गोरा रंग, खिचड़ी बालों वाली सलीके से बनाई दाढ़ी और कपास जैसे सफ़ेद बाल. शाज़िया अम्मी के बचपन में ही चले जाने पर भी शब्बीर हसन ने दूसरा निकाह नहीं किया. वो चाहते थे कि उनकी बेटी अपने मन में आई हर ख्वाहिश पूरी कर सके. पढ़ाई में बचपन से बहुत होशियार थी, वो उसे आईएएस ऑफिसर बनाने का ख्व़ाब पाले हुए थे.
केसर मिले दूध जैसा रंग, चीते जैसी चमकीली भूरी आंखें, लंबा कद और गर्दन तक कटे हुए हल्के भूरे बाल. अम्मी के जाने के वक़्त वो महज़ चार साल की थी तब से रुख़साना ने उसकी देखभाल की. शाज़िया उन्हें बुई कहती थी. अब रुख़साना की उम्र साठ के करीब थी. गेहुंआ रंग, छोटा कद, मुस्तैद चाल, सिर पर तेल से चुपड़े खिचड़ी बाल और हमेशा उन पर दुपट्टे का साया. रुख़साना का शौहर अली, शब्बीर की गाड़ी चलाया करता था. शब्बीर ने कोठी में ही उन्हें एक कमरा दे रखा था, जहां रुख़साना अली और लड़के शौकत के साथ रहती थीं. कुछ सालों पहले अली का इंतकाल हो गया. बेटा शौकत शब्बीर की मदद से सऊदी अरब चला गया. वहां ड्राईवर है, अच्छा पैसा कमाने लगा है साल में दो बार आता है. उसने रुखसाना को काम छोड़ देने को कहा पर उसने मना कर दिया.
“अकेले बैठ कर भी क्या करूं? जब तू वापस आ कर निकाह कर लेगा तब काम छोड़ दूंगी. सारी ज़िंदगी शब्बीर मियां और शाजी बेटी के साथ बिताई, अब उनके बगैर रहा नहीं जाता. जो कुछ दिया हुआ है सब उन्हीं का तो है.” शौकत ने उसके लिए एक नया घर खरीदा, तो दोपहर में रुख़साना कई बार वहां चली जाती थी. शब्बीर ने उन्हें कभी कामवाली नहीं माना, वो उसे बड़ी बहन की तरह इज्ज़त देते थे.
शाज़िया बीस साल की रही होगी, जब उसने अपने मामा के निकाह में एक लड़के को देखा. जब भी उसकी निगाह उसकी तरफ़ जाती वो भी उसी की ओर देख रहा होता. सहेलियां थीं, धूमधाम थी, पर शाज़िया का मन उसी लड़के में अटक गया. वो शाज़िया को देख एक दो बार मुस्कुराया भी था.
“शाज़िया,” शब्बीर ने ज़ोर से पुकारा.
“जी अब्बू,” शाज़िया भागती हुई आई.
“ज़ुबैदा ये रहीं हमारी साहिबज़ादी शाज़िया हसन ज़ैदी, अभी महारानी कॉलेज से बीएससी कर रहीं हैं, फाइनल ईयर.”
शाज़िया ने सिर झुका कर सलाम किया. ज़ुबैदा शब्बीर की मौसेरी बहन थी, जो कई सालों बाद शब्बीर से मिल रही थी.
“माशाल्लाह! बला की खूबसूरत है. आप और भाभी जान जब मुंबई आए थे तब गोद की थी शाज़िया!” ज़ुबैदा ने शाज़िया का माथा चूमते हुए कहा.
वो लोग बातें कर ही रहे थे तभी वो नौजवान पास आकर खड़ा हो गया, शाज़िया के अब्बा को मुस्कुरा के सलाम किया.
“खूब खुश रहो बेटे, क्या कर रहे हो आजकल?”
“मामा जान, मैं जेएनयू में इंटरनेशनल रिलेशन्स पर पीएचडी कर रहा हूं.”
“अरे मियां! मुंबई छोड़ दिल्ली पहुंच गए…बेटी…ये असलम हैं ज़ुबैदा खाला के साहिबज़ादे.”
“हैलो,” असलम ने उस पर गहरी नज़र डालते हुए कहा.
शाज़िया के मुंह से आवाज़ न निकली. उसने बस सिर हिला दिया. उसे अपनी धड़कनें तेज़ होती महसूस हुईं. असलम बादामी आंखों और घुंघराले बालों वाला खूबसूरत लंबा लड़का था. आसमानी रंग की शेरवानी में वो कातिल नज़र आ रहा था. इधर शब्बीर जुबैदा से बातों में लगे रहे और उधर पहली नज़र में ही शाज़िया और असलम के बीच इश्क़ जैसा कुछ चालू हो गया. फ़ोन पर चोरी छुपे बातों के सिलसिले चालू हो गए.
एक दिन सुबह सुबह ही असलम का फ़ोन आया.
“जयपुर आया हूं, तुमसे मिलने.”
शाज़िया के कान गरम हो गए. गला सूखने लगा, उसे समझ नहीं आ रहा था क्या बोले!
“हैलो..कैन यू हिअर मी?”
“कैसे मिलेंगे? किसी ने देख लिया तो?” शाज़िया की आवाज़ में घबराहट थी.
“घर आ जाता हूं. घर ही हो न?”
“हां…मगर अब्बू क्या सोचेंगे?”
“फ़िक्र न करिए साहिबा…आई विल मैनेज,” कहते हुए असलम ने फ़ोन रख दिया.
शाज़िया घर को साफ़ करने में लग गई. जल्दी-जल्दी सोफे के कवर बदले, नया मेजपोश बिछाया, चादरें बदलीं, किराने की दुकान में फ़ोन कर कुछ नाश्ता ऑर्डर किया. अलमारी से नया सूट निकाल कर इस्तिरी कर ही रही थी कि उसके अब्बा कमरे में दाखिल हुए.
“क्या बात है शाजी खान…आज ईद है क्या? पूरे घर का मेकओवर कर दिया है.”
शाज़िया को उन्होंने बेटे की तरह ही पाला था, वो उसे शाजी खान बोलते थे. शाज़िया घर में बचपन से ही लड़कों की तरह बोलती थी- खाता हूं, जाता हूं, पढ़ता हूं. अब्बू को अचानक कमरे में देख वो हड़बड़ा गई.
“वो…वो…अब्बू. आज संडे है न, शाम को मेरी कुछ फ्रेंड्स आने वाली हैं, इसलिए सोचा घर साफ़ कर दूं, वैसे भी एक्ज़ाम्स की वजह से टाइम ही नहीं मिला, पूरा घर बिखरा पड़ा था.”
“अच्छा…आज वाक पर मिस्टर खन्ना आपकी तारीफ़ कर रहे थे…बोले आप खुशकिस्मत हैं जो शाज़िया जैसी आल राउंडर बेटी मिली है.”
शाज़िया ने सूट तह करते हुए मुस्कुरा के अब्बू की तरफ देखा…..
शाज़िया ने टूटे हुए दिल को सुकून देने के लिए एक ड्रामे में हिस्सा लेने का फैसला किया था, लेकिन वो नहीं जानती थी कि यह एक दोधारी तलवार थी, जो उसके दिल को एक ही साथ सुकून भी देगी और दर्द भी. युवा दिलों की एक रूमानी दास्तान पूरी पढ़िए इरा टॉक के नए उपन्यास रिस्क @इश्क में …