प्रितपाल कौर:
वो अंगेरजी नहीं बोल सकती थी
वो कद में थोड़ी छोटी थी
वो थोड़े दबे हुए रंग की थी
वो बिस्तर में उत्साही नहीं थी
उसे तंग कपडे पहनना मंज़ूर नहीं था
मगर शादी के वक़्त सब ठीक ही था
वो उस वक़्त छोटे कद का था
उसकी नौकरी छोटी थी
वो खाना तो अच्छा बना लेती थी
मेहमानों को भी इज्ज़त देती थी
वो घर को बहुत साफ़ रखती थी
मगर कुछ कुछ बोरिंग होने लगी थी
वो अफसर बन गया था
वो सवाल करने लगी थी
उसका ज़मीर जागने लगा था
वो उसकी आवारगी पर नाराज़गी करती थी
अब वो चुभने लगी थी
उसका शरीर चुस्त नहीं रहा था
वो साल दर साल बीत रही थी
वो औरत थी
उसको हक नहीं था की उसकी जवानी ढले
अब वो नागवार हो चली थी
उसका जिस्म मंद हो गया था
वो बच्चा नहीं कर सकी थी
वो दवाओं से मोटी हो गयी थी
मोटा ये भी हो गया था
लेकिन ये तो मर्द का बच्चा था
वो बेकार हो गयी थी
उसे बिठा कर तीन लोगों में
तीन बार उसने कहा था
एक ही लफ्ज़
एक ही लहजे में
और चिड़िया के बोट की तरह
नंगी और नुची हुयी को
उस घर से खदेड़ दिया था
जो इतने बरसों से
उसी मोटी, नाटी,
खाना बनाने वाली
सफाई करने वाली
बिस्तर पर बिछने वाली
दुनिया चलाने वाली
के पीठ पर चल कर
यहां तक आया था.