‘MENSTRUATION अब मेरे लिए मजाक का विषय नहीं है और न आसपास किसी को ऐसा करने देता हूं’

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रामकिंकर कुमार:

(बीएचयू से फ्रेंच से बैचलर्स और लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद अभी “मुहीम” संस्था के साथ ग्रामीण क्षेत्रों ‘माहवारी’ के मुद्दे पर काम कर रहे हैं)

मैं बिहार के एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं. जहां ‘ Menstruation यानी माहवारी’ तो क्या Sanitary Pad का नाम तक मर्दों के सामने नहीं लिया जाता है.  Menstruation के दौरान महिलाओं को दाग छिपाने के उपाय और इसे मर्दों की नज़रों से बचाने की शिक्षा दी जाती है.




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रामकिंकर कुमार

मेरी परवरिश भी ऐसी ही माहौल में हुई. तीन बहनों के बीच मैं एकलौता भाई हूं. हम भाई-बहन ने आपस में हमेशा से अपने पढ़ाई से लेकर खिलौने और अपनी बातें साझा की पर कभी-भी ‘माहवारी’ के मुद्दे पर हमलोगों की कोई बात नहीं हुई. मुझे आज भी याद है कि जब कभी हम भाई-बहन साथ में टीवी देखते और अचानक से ‘सेनेटरी पैड’ का एड आ जाये तो बहन तुरंत चैनल बदल देती थी. ये बात मुझे हमेशा खटकती थी कि आखिर इस एड में ऐसा क्या है जिसे दीदी मेरी नज़रों से छिपाती है… पर उम्र के साथ बढ़ते हम भाई-बहन में धीरे-धीरे दूरी आती गई.

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ग्रेजुएशन के लिए जब मैं अपने गांव से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) आया तब धीरे-धीरे इन मुद्दों पर दोस्तों के साथ कभी-कभी बातें होती, लेकिन ‘माहवारी’ का मुद्दा हमेशा हम सभी के बीच एक मजाक का विषय ही होता. शायद ऐसा इसलिए था कि हममे से किसी को भी इसके बारे कोई ख़ास जानकारी नहीं थी. हमने हमेशा से इसे ‘लड़कियों वाली समस्या’ समझा था, जो बेहद आम थी.




पर आज जब मैं “मुहीम” संस्था के साथ ‘माहवारी’ के मुद्दे पर काम रहा हूं तो इस विषय की गंभीरता को समझ पा रहा हूं. अपनी इस संस्था के ज़रिए हम बनारस के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोरियों के साथ माहवारी के मुद्दे पर काम करते है, जिसके तहत हम उन्हें जागरूक करने से लेकर सेनेटरी पैड बनाने की ट्रेनिंग देते हैं. अभी तक हमने करीब 500 महिलाओं को जागरूक बनाया है.

फील्ड वर्क के दौरान जब गांव के पुरुषों के साथ मैं इस विषय पर बात करता हूं तो अधिकतर इस विषय को गैरज़रूरी मानते है लेकिन कहते हैं इस पर काम करना जरुरी है. वहीं दूसरी ओर, जब मैं लड़कियों की टीम के साथ गांव में जाता हूं तो मेरी मौजूदगी महिलाओं और किशोरियों को हमेशा असहज कर देती है. जिसे देखने के बाद इस विषय पर महिला-पुरुष के बीच हमारी सामाजिक संरचना की फांक साफ़ दिखाई पड़ती है, जिसके चलते यह मुद्दा सिर्फ ‘शर्म’ तक सिमटकर रह जाता है.

शुरूआती दौर में मुझे भी इस विषय पर बात करने और यहां तक कि जब लोग मुझसे पूछते थे कि आपकी संस्था किस विषय पर काम कर रही है…? इसका जवाब देने तक में मुझे शर्म आती है, क्योंकि कई बार मुझे इस मुद्दे पर काम करने को लेकर हंसी का पात्र बनना पड़ा था. लेकिन अब न यह विषय मुझे शर्मिंदा करता है और न ही मैं इसपर बात करने में असहज महसूस करता हूं.

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आज जब मैं गांव में इस विषय पर महिलाओं की ‘शर्म करने की मानसिक प्रवृत्ति’ को देखता हूं तो महसूस होता है कि इस विषय पर महिला-पुरुष दोनों को शिक्षित करने की ज़रूरत है. जिसकी शुरुआत इस विषय पर खुलकर बातचीत से ही हो  सकती है. अब तक यह महसूस किया है कि ग्रामीण महिलाएं शुरु में शर्म के चलते इस विषय पर खुलकर बात नहीं करती,  लेकिन धीरे-धीरे वे खुलकर इससे जुड़े अपने कड़वे अनुभव और तमाम सामाजिक शारीरिक समस्याएं साझा करती है|

वहीं दूसरी तरफ पुरुष भी इस विषय पर पुरुष के साथ खुलकर बात करते है, लेकिन जब बात उनकी बेटी-बहू-पत्नी की आती है तो उनकी बातों में शर्म की परत साफ़ दिखाई पड़ने लगती है. इससे जाहिर होता है कि इस विषय की गंभीरता को महिला-पुरुष दोनों ही समझते है लेकिन किसी एक बिंदु पर आकर उनके लिए ये मुद्दा सिर्फ ‘शर्म’ का विषय बनकर रह जाता है.

वास्तव में एक पुरुष होने के नाते मैं ‘माहवारी’ के विषय में चाहे जितनी बातें भी कहूं वो कोरी-कल्पना की तरह ही होगी क्योंकि वास्तव में ये शारीरिक तौर मुझसे जुड़ी हुई नहीं है. पर यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक तौर पर इस समस्या का ताल्लुक हम सभी से है, क्योंकि हमारे अस्तित्व का ताल्लुक माहवारी से है.

मैं मानता हूं कि कोई भी बदलाव तुरंत नहीं लाया जा सकता है. पर हमें शुरुआत तो करनी होगी. इसी तर्ज पर मैंने भी धीरे-धीरे माहवारी के मुद्दे पर अपनी सोच बदलने का काम शुरू किया और लगातार इस दिशा में काम भी कर रहा हूं. अब मेरे लिए यह मजाक का विषय नहीं है और न ही मैं कभी भी अपने आस-पास इसे मज़ाक का विषय बनने देता हूं.

 

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