कीर्ति दीक्षित:
आज बात महिलाओं की हो रही हैं मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहती हूं कि महिलाओं की समस्याओं को Market में बेचने वाले वे लोग हैं जो खुद को उनका हिमायती कहते हैं.
अभी जो कहने वाली हूं, इसके कारण संभवतः मुझे कोई सोलहवीं सदी का कहे या देहाती कहे उससे मुझे कभी आपत्ति नहीं होती, बल्कि स्वयं को गंवार कहलाना आज अच्छा लगता है क्योंकि ये शब्द मुझे मेरी जड़ों से जोड़ते से लगते हैं.
मैं दिल्ली में रहती हूं लेकिन बहुत छोटे से कस्बे की रहने वाली हूं, पलने बढ़ने से लेकर पढ़ने तक जीवन के सारे मार्ग उसी जड़ से निकले हैं, क्या पहनना, क्या पढ़ना, कैसे रहना से लेकर क्या करना नहीं करना वाली सारी बंदिशें मैंने जी हैं.
मैंने नारियल तोड़ने, शंख बजाने से लेकर पूरा कद्दू काटने तक के कथित मिथकों को भी खूब तोड़ा. जिस जगह लड़कियों का नौकरी करना तो दूर अकेला बाहर निकलना किसी अपराध से कम नहीं माना जाता था उसी जगह से निकलकर मैंने हजारों किलोमीटर दूर पत्रकारिता जैसी नौकरी भी की.
आज लिखती हूं, अकेले सफर भी करती हूं, अपने निर्णय स्वयं लेती हूं, सही गलत सब कुछ मेरा अपना है, पर अब भी लड़कियों की स्वतंत्रता के लिए खूब बहसें करनी पड़ती हैं. आज भी मैं अपने विश्वासों पर दृढ़ रहती हूं, इसके लिए हठी, क्रोधी तमाम उपनामों से सुसज्जित भी हूं.
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पर इतना सब होने के बावजूद मैं आज नारीवाद को लेकर दिये जाने वाले तर्कों से सन्तुष्ट नहीं होती. शायद समय बदल गया है, देखने सुनने का नजरिया भी बदल गया है और वो इस हद तक बदल गया है कि बिगड़ गया है.
वर्तमान में अल्प समय में बड़ी सफलता का अचूक मार्ग है नारीवाद का बाजारीकरण कर दीजिए. बाजारीकरण शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रही हूं क्योंकि यही नारीवाद का हत्यारा है. सारे लेख स्त्रियों की पहनावे की स्वतंत्रता पर आते हैं या उनके व्यक्तिगत अंगों उपांगों से अटे पड़े हैं.

ऐसा लगता है मानो इसके अतिरिक्त स्त्रियों की कोई अन्य समस्या रही ही नहीं. आज स्त्री की अपनी समस्याएं बाजार में वो लोग बेच रहे हैं जो स्वयं को महिलाओं का हिमायती कहते फिरते हैं और कैमरे बन्द होते ही ठहाका लगाकर घर पहुंचते ही नारीवाद अपने पुराने खोल में लौट आता है.
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पिछले दिनों की बात है. मेरी एक नारीवादी मित्र जिनसे प्रायः इस विषय पर गहन बहस हो जाया करती है, एक रोज क्रांतिकारी स्त्रीवादी फिल्म देखने थियेटर गईं थीं. फिल्म पूरी हो पाती उससे पहले उन्होंने पीछे बैठे नारीवादी पुरुषों के दबे सुर में गालियों भरे ठहाकों में ये कहते सुना कि वाह रे…. फेमिनिज्म जिन्दाबाद.
अपनी तो मौज है….अब खुलेआम, मजा आ रहा है. वीमेन पावर ऐसी ही फिल्में बनाओ और हमारा मनोरंजन करो, ……हम तुम्हारे लिए …..ऐसी क्रांति करेंगे कि तुम्हें भी रंगीन दुनिया के दर्शन होते रहेंगे. (इन बिन्दुओं के स्थान पर गालियां सुशोभित थीं) हमारी मित्र उठकर चली आईं और कसम खाई कि अब वे इस बाजारीकरण वाले फेमिनिज्म पर मुझसे कभी बहस नहीं करेंगी.
मन बिलबिला उठता है जब हमारा शरीर बाजार के बहस का मुद्दा होता है. जो लोगों के लिए कोई सीख नहीं मजाक और मनोरंजन का साधन मात्र होती है. मानिये या ना मानिए ये कटुतम् सत्य है कि ऐसा समाज मानसिक रूप से विधुर हो चुका है.
आज की कथित नारीवादी नारियों को देखकर कभी-कभी बड़ा अचम्भा लगता है कि क्या नारी की कल्पना की कोख इतनी तंग हो चुकी है कि वे स्वसामर्थ्य को ही धारण करने में असक्षम है, आज की स्थिति यह है कि नारीवाद पुरुषवाद से अधिक नारीवाद की पतीली में खौलाया जा रहा है.
प्रायः आजकल देखती हूं महिलाओं पर लोग कविताएं लिखते हैं. जिनमें कभी कपड़े धोने में उसके ख्वाब गल रहे होते हैं, खाना बनाने में उसके आंसू जल रहे होते हैं. सच में ऐसा मार्मिक वर्णन कि कोई भी स्त्री कह उठे कि हाय मैं तो सच में अबला हूं.
स्वयं को अति निम्न बेचारी और दया का पात्र मानने लगे. और तो और ऐसे लेखकों कोई महिला ही होती हैं. इसलिए मेरी बड़ी सहज सी जिज्ञासा है कि क्या आपने भी मान लिया कि घर की जिम्मेेदारी निभाना निकृष्ट कार्य है, क्योंकि मैं तो आज तक यही सुनती आई थी कि अपने कार्य का सम्मान यदि आप स्वयं नहीं करते तो कोई दूसरा कभी नहीं करेगा.
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किसी घर में कार्य करने से अधिक किसी ऑफिस में काम करना अधिक गौरव की बात कब से हो गई ये पता ही नहीं चला. मेरे लिए वह हर महिला सशक्त है जो समाज के लिए योगदान दे रही है, वह चाहे गृहिणी हो, कुली हो, मजदूर हो, ऑफिस में काम करने वाली, प्लेन उड़ाने वाली या फिर सीमा पर सुरक्षा के लिए चौकसी करने वाली.
प्रत्येक का अपना स्थान है, अपना सम्मान है पर इस सम्मान देने की होड़ में उन महिलाओं का हौसला तोड़ देते हैं जो घर की दीवारों में बैठकर भविष्य को संवार रही हैं. वे किसी एक कम्पनी की उन्नति के लिए काम नहीं करतीं वे पूरी की पूरी एक पीढ़ी को आकाश तक पहुंचाने की सीढ़ी बनकर खड़ी होती हैं।
महिला सशक्तिकरण पर बात करते हुए कभी ऐसी महिलाओं की थरथराती आंखों में उभरते नैराश्य का अध्ययन कीजिए, कभी उनको उन पोस्टरों को देखिए जिनमें केवल उन महिलाओं का यशोगान होता है जो किसी कंपनी के मैनेजर की कुर्सी पर बैठी हों, अभिनेत्रियां हों या अन्य किसी क्षेत्र से निकलकर आती हों, वे उसी क्षण स्वयं की दृष्टि में तुच्छ हो जाती हैं.
महिला दिवस पर या अन्य किसी भी अवसरों पर केवल किसी पद पर बैठीं सशक्त महिलाओं को सुसज्जित मत कीजिए, सदैव सर्वोच्च एवं प्रथम सम्मान उनको दीजिए जो आपको किसी शिखर तक पहुंचाने के लिए चुपचाप आपकी बुनियाद का पत्थर बनकर गड़ जाती हैं.
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