जूली जयश्री:
हमारे कुछ दोस्तों ने #MeriRaatMeriSadak नाम से एक Campaign शुरु किया है. इसी कैंपेन के लिए हम आज रात बाहर निकलेंगे. यह कोई Revolution क्रांति नहीं है बल्कि एक छोटा सा प्रयास है उन बेड़ियों को तोड़ने का जिसने यह भेद कर दिया है कि महिलाओं को रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए. जब कुदरत ने दिन-रात बनाते समय हमारे साथ भेद नहीं किया, सरकार ने सङक भी किसी खास वर्ग के नाम समर्पित नहीं किया है तो फिर क्यों हमें बचपन से ही रात और सङक के आतंक से डराया जाता है?
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इसी से जुड़ा एक किस्सा मुझे याद आ रहा है. हाईस्कूल की पढाई के बाद मैं आगे की पढाई के लिए दूसरे शहर जा रही थी. पहली बार ट्रेन से अकेले यात्रा करना तय था इसलिए लङकी होने का डर मेरे माता पिता पर भी खूब हावी था. वैसे छोटे शहर से होने के बावजूद मेरे माता पिता की मानसिकता परिवेश और माहौल के दायरे से बहुत हद तक आजाद थी, हमें अपना हर काम स्वयं करने की आजादी थी, बावजूद इसके वो भी बाहरी माहौल से अछूते नहीं रहे.
मेरे साथ एक पुरुष रिश्तेदार को मेरी सुरक्षा के लिए साथ लगा दिया गया. 12 घंटे की रेल यात्रा तो सही रही पर गंतव्य चकमा दे गया. हङबङाहट में हम लोग उस शहर से पहले वाले स्टेशन पर ही उतर गए. रात के 11 बज रहे थे और इस छोटे से स्टेशन पर गिनती के लोग ही खङे थे. हम जैसे ही हम स्टेशन से बाहर आए हमें गलत जगह उतर जाने का भान हो गया. ऑटो और रिक्शे वालों ने इसका भरपूर फायदा उठाने की कोशिश की. किराए के मोल जोल के बहाने वो हमारे पीछे पड़ गए. मैं परिस्थिति को समझते हुए स्टेशन की तरफ वापस गई, लेकिन अब तक वहां भी लगभग सुनसान सा हो चुका था. हम मुश्किल में फंस चुके थे.
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असली गंतव्य पर मुझे लेने मेरे मामा आने वाले थे, लेकिन फोन की सुविधा न होने के कारण उनसे संपर्क करना मुश्किल हो रहा था. रेलवे के इनक्वायरी रुम में गए लेकिन वहां मिली सहायता भी हमारे लिए काफी साबित नहीं हुई. स्टेशन पर न तो कोई टेलिफोन बूथ था और न ही वहां मौजूद इक्के दुक्के लोगों के पास मोबाइल. हम काफी डर गए. मेरे साथ मेरे पुरुष रिश्तेदार मुझसे ज्यादा डरे और घबराए थे. मैं जहां इस समस्या से निकलने की कोशिश कर रही थी, वहीं वे पसीने से लथपथ थे. मैं उन्हें साहस दे रही थी.
हमें स्टेशन पर उतरे एक घंटा हो चुका था. 12 बज गए थे. स्टेशन मास्टर की शिफ्ट चेंज हुई. आगे की ड्यूटी पर तैनात हुए स्टेशन मास्टर के पास मोबाइल फोन था. हमने उस फोन से अपने परिजन को संपर्क किया और अपने गंतव्य पहुंचने में कामयाब हुए. तीन घंटे के उस खौफनाक माहौल में मेरे पुरुष रिश्तेदार मेरे लिए सर दर्द ही साबित हुए और अंततः मेरा हौसला ही काम आया. ऐसा नहीं कि इस घटना के बाद सड़क या रात के प्रति मेरा डर समाप्त हो गया लेकिन इतना जरुर हुआ कि दिन हो या रात अपने बूते अपना काम करने का साहस बुलंद हो गया.
यहां इस कहानी का जिक्र करने का मेरा मकसद था कि इस बात को समझे की जरुरत है कि डर या हिम्मत किसी जेंडर का मोहताज नहीं, यह दोनों हम सबके भीतर मौजूद है लेकिन साजिशन इस बात को महिलाओं के ऊपर शुरु से ही थोप दिया गय है कि रात हमारे लिए बना ही नहीं. मेरा तर्जुबा कहता है कि ऐसा नहीं कि घर से बाहर या सुनसान सङक पर डराने वाले असामजिक तत्व के अंदर डर नहीं है लेकिन हमारे डर और असहजता ने उनका साहस बुलंद कर रखा है. इसलिए हमें सहज होने की जरुरत है. जी हां कोई क्रांति नहीं सहजता और साहस….