पीरियड पर आधारित हमारे कैंपेन #MyFirstBlood की तीसरी किस्त में आज पढ़िए रीवा सिंह के अनुभव.
रीवा सिंह:
उस दिन नहीं पता था कि ये कम से कम 4 Days तक चलता है- सातवीं क्लास में पढ़ती थी जब एक दिन मम्मी अपने पास बिठाकर बातें करते हुए न जाने क्या बताने लगीं. उन्होंने कहा, “औरतें कहीं से आती नहीं हैं, लड़कियां ही बड़ी होकर औरत बनती हैं. सातवीं कक्षा तक आते-आते मैं इतनी बेवकूफ़ नहीं रह गई थी इसलिए मन खीझ गया और मैंने चिल्लाते हुए कहा– मुझे पता है, ये फालतू बात क्यों बता रही हैं.
जैसे वो आगे बताने लगीं उनकी आवाज़ धीमी पड़ने लगी और फिर मुझे पता चला कि बड़ी होकर मां और बेटी सहेलियां हो जाती हैं और हर बात पिता से नहीं कहनी होती है. मैं परेशान हो गयी। मैं मम्मी से ज़्यादा डैडी के करीब थी, उनसे दूरी वाला कॉन्सेप्ट पसंद नहीं आया. फिर पता चला कि ब्लीडिंग होती है और इससे पता चलता है कि बड़े हो गए, और इसके बारे में पुरुषों से बात नहीं करते.
आठवीं में गयी तो क्लास की लड़कियों से इस बारे में बात होने लगी, फिर पता चला कि कौन-कौन इससे गुज़र चुका है. उस दिन पता चला कि ये ब्लीडिंग हर महीने होती है और कम से कम चार दिन तक चलती है. इससे पहले मैं यही समझती थी कि कोई लड़की बड़ी हुई तो उसे एक बार कुछ मिनट के लिए ब्लीडिंग हो गयी, बस. इसका मतलब कि वो बड़ी हो गयी.
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जब इस सायकल का पता चला तो लगा कि ज़िंदगी कितनी घटिया होने वाली है! मेरे लिए खून क्या महत्त्व रखता है इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चोट चाहें जितनी भी गहरी हो, जबतक खून न निकले मैं उसे चोट नहीं मानती थी.
अब हर महीने खून निकलेगा वो भी 4 दिनों तक! बाप रे! फिर ज़िंदा कैसे रहेंगे! ये कभी ठीक नहीं होगा? अब क्लास में किसी भी दिन अचानक ही पता चलता कि किसी लड़की को पीरियड्स शुरू हो गए और हमें ऐसा लगता जैसे एक और विकेट गिरा.
उसी क्लास में मेडिकल कैम्प के दौरान लड़कियों की अलग से काउंसिलिंग हुई. बहुत-से डॉक्टर्स के अलावा एक गायनोकॉलजिस्ट भी आयी थीं जिन्होंने हमें इस बारे में बताया. टीचर्स ने हमें और दूसरी क्लासेज़ की लड़कियों को एक हॉल में बुलाकर खड़ा कर दिया था. पर हमारी टीचर्स ने भी इसपर खुलकर बात नहीं की.
प्रिंसिपल मैम आईं तो उन्होंने बायोलॉजिकली समझाते हुए कहा कि ये कोई हौव्वा नहीं है. फीमेल बॉडी में एग होता है जिसे ओवा कहते हैं. अगर ये ओवा फ़र्टिलाइज़ न हो तो प्यूबर्टी के दौरान हर महीने हमारी बॉडी से बाहर आ जाता है और फिर नया ओवा बनता है.
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ये बात उनके बताने से पहले ही पता थी पर किसी ने इतनी सहजता से नहीं बताया था. आलम ये था कि डॉक्टर हमारे सामने बैठी हुई थीं पर कोई लड़की खुलकर सवाल नहीं पूछ पा रही थी. फिर प्रिंसिपल मैम ने ही कुछ लड़कियों को बुलाना शुरू किया जिनकी ऐसी समस्या के बारे में वो जानती थीं.
मैं क्या पूछती, मुझे तबतक इसका अनुभव नहीं था. इस विषय पर सिर्फ़ परेशान हो जाया करती थी. क्लास में पहुंचते ही हमारे मेल क्लासमेट्स ने सवालों की झड़ियां लगा दीं–कहां गए थे तुमलोग? ऐसा क्या है जो तुम लोगों को बुलाया गया और हमें नहीं? हमें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बताएं और ये भी नहीं समझ पाये कि क्यों नहीं बताना है.
महीने बीतते गये. मेरी सहेलियों में लगभग सभी पीरियड्स का अनुभव कर चुकी थीं, मैं अभी बची थी. ‘बची’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रही हूं क्योंकि उस वक्त दिमाग में ये चलता था कि एक बार ये सिलसिला शुरू हुआ तो 40-45 के बाद ही थमेगा इसलिए जबतक हो सके बची रहो. पर इससे बचने जैसा कुछ कहां था! पीरियड्स पर किसका ज़ोर था!
तारीख़ याद नहीं पर दिन शनिवार था ये इसलिए याद है क्योंकि उस दिन मैंने हाउस टी-शर्ट के साथ सफ़ेद स्कर्ट पहनी थी. स्कूल से अभी घर आई थी, कुछ अजीब-सा लग रहा था. समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर चिढ़ मच रही थी. मैं वॉशरूम गयी तो कोमोड में लाल रंग दिखा. दिमाग सुन्न हो गया. लो रीवा, अब तुम्हारा भी विकेट गिरा.
अजीब ये था कि मुझे दर्द नहीं हुआ इसलिए मैं ये सोचने लगी कि पता नहीं कबसे हो रहा होगा. फिर मैंने तुरंत स्कर्ट चेक की, स्कर्ट साफ़ थी, कोई दाग नहीं था. शर्म आती है ये सोचकर कि उस वक़्त मैंने पीरियड्स के आने से ज़्यादा स्कर्ट के दाग के बारे में सोचा था. मैंने मम्मी को बताया, मम्मी किनारे ले गयीं और सैनिटरी नैपकिन पकड़ा दिया ये समझाते हुए कि इस्तेमाल कैसे करना है.
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मैंने उस नैपकिन का इस्तेमाल तो कर लिया पर बहुत असहज थी. एक अजीब-सी बेचैनी, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. नैपकिन के साथ जीने की आदत नहीं थी इसलिए मन कर रहा था कब निकालकर फेंक दूं. मुझे याद है उन दिनों पीरियड्स को लेकर मेरे मन में ये बात सबसे बुरी तरह बैठ गयी थी कि किसी को पता नहीं चलना चाहिए.
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मैं ठीक नहीं थी, डैडी ने नोटिस किया. उन्होंने पूछा तो मैं कुछ ठीक से बता नहीं पाई. रात भर बैठी रह गयी क्योंकि अब दर्द होने लगा था और सोया नहीं जा रहा था. डैडी से न बता पाने पर बहुत बुरा लगा, लगा कि ऐसे ही डैडी से दूरी हो जाएगी क्या! डैडी से दूर होकर बड़ा होना बहुत बुरा है.
वो वीकेंड था और उसके बाद से सर्दी की छुट्टियां शुरू थीं. उस बार मुझे पूरे 12 दिन तक पीरियड्स चले. मम्मी कई बार पूछतीं कि अब खत्म हो गया? मैं कहती– नहीं। मैं इसे लेकर इतनी संकुचित होती जा रही थी कि मम्मी से भी डिसकस करना ठीक नहीं लगता था. पीरियड्स के 7 दिन के बाद मम्मी घबरा गयीं, वो डॉक्टर को दिखाने की ज़िद्द करने लगीं पर मैं अपनी ज़िद्द पर अड़ी थी कि नहीं जाऊंगी.
उसके बाद सब नॉर्मल हो गया, पीरियड्स भी नियमित रूप से आने लगे पर दर्द बेहिसाब बढ़ता गया. चिल्लाने का और मर जाने का मन होता पर चेहरा एकदम शांत दिखता क्योंकि चेहरे को शोर मचाने की इजाज़त नहीं थी. क्लास में अब इतना छुपने-छुपाने वाला माहौल नहीं था. साफ़ शब्दों में कभी इसपर बहस नहीं हुई पर सब ‘समझदार’ हो चले थे.