ललिता, दिल्ली:
मई-जून की चमचमापती धूप…लू से लोगों से बुरा हाल हो रहा था. गर्मी से खुद को बचाने की लोगों कोशिशें….कोई आईस्क्रीम खाता दिख रहा था तो कोई शिंकजी से सूखे गले को तर कर रहा था.. ये नज़ारा था दोपहर के 1-2 बजे दिल्ली के मशहूर आजादपुर बस ट्रमिनल का जहां लोग बस का इंतजार कर रहे थे.
उन्हीं में मैं भी एक कोने में खुद को दुप्पटे से पूरा ढंके हुए थी. छाया में दुबककर खड़ी धूप से बचने की कोशिश करती हुई. उस समय एक छात्रा थी तो पैसे ज्यादा बचाने का लालच रहता था तो मैंने शिंकजी या आइस्क्रीम नहीं खाई…बस, बस का इंतजार कर रही थी.
आखिरकार आधे घंटे के इंतजार के बाद बस आ ही गई. लॉ-फ्लोर बस नहीं थी वो. कॉलेज के बच्चों ने उसका नाम डब्बा बस रखा हुआ था क्योंकि वह पुरानी सरकारी बस थी. बस आई तो खुशी के मारे हम सब लोग भागे बस में सीट लेने को. मुझे खिड़की वाली सीट अच्छी लगती है तो सोचा जल्दी से चढ़ जाऊं तो वह सीट मिल जाएगी. हुआ भी ऐसा ही. मुझे सीट मिल गई. लगभग सभी लोग बैठ गए थे.
सवारी लेकर बस चल पड़ी. कुछ ही देर बाद अगले बस स्टैंड पर बस रूकी जिसका नाम था आदर्श नगर. अबतक सब कुछ ठीक था. इसी बस-स्टैंड से एक अधेड़ उम्र का आदमी चढ़ा. मेरे साथ वाली सीट खाली थी तो आकर बैठ गया. कुछ देर बाद मुझे कुछ अजीब-सा अहसास हुआ. वे अंकल बहुत हिल रहे थे. पहले सोचा की शायद बस ही हिल रही हैं क्योकिं मैं खिड़की से बाहर देखने में मशगुल थी, मैंने ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया. ऐसे ही गर्मी से बुरा हाल था मेरा.
बस थोड़ा गति से आगे बढ़ी तब एकाएक ध्यान गया कि मेरे पास वाला आदमी अब ओर ज्यादा तेजी से हिलने लगा. ये अब अजीब था क्योंकि बस की स्पीड तेज नहीं थी. कुछ गलत तो नहीं हो रहा यही सोचकर जैसे ही मैंने अपनी नज़रे घुमाकर देखना चाहा कि वो आदमी आखिर ऐसा क्या रहा है…?नज़ारा जो मैंने देखा…..शायद….मैं ताउम्र न भूल पाऊं. दिल धक सा रह गया…हाथ-पैर मानो सुन हो गए, घिन सी आ गई ऐसा लग रहा था मानो मुझे उल्टी हो जाएगी.
वो अधेड़ उम्र का आदमी हस्तमैथुन कर रहा था. मुझे नहीं पता किस-किस ने वो नजारा देखा पर हां देखा तो कई लोगों ने था. पर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि कोई उसका विरोध करता. जैसे-तैसे हिम्मत करके उस अधेड़ उम्र के आदमी को डांटा, जोर से चिल्लाई, पर तब भी किसी ने पलट कर नहीं पुछा कि हुआ क्या..?
मैं घर आकर सहमी सी रोनी शक्ल लेकर बैठी. मम्मी ने जैसे ही पूछा क्या हुआ मैं तेज़-तेज़ रोने लगी. सारी बात मम्मी को बताई. मुझे रोता देख पापा भी घबरा गए. बार-बार पूछने लगे क्या हुआ? पर मेरी हिम्मत उन्हें कुछ भी बताने की नहीं हुई. मैं हैरान थी उस इंसान पर जो सार्वजनिक स्थानों पर अपनी बेटी की उम्र के एक लड़की के बगल में बैठकर इस तरह की हरक़त कर रहा था बिना किसी डर के और शर्म के. वो एक छुपा बलात्कारी था, जो शिकार की तलाश कर रहा था. कौन कह सकता है उसने किसी को अपना शिकार नहीं बनाया हो? इस घटना से मुझे हैरानी इस बात पर भी हो रही थी कि बस में सवार लोग मूकदर्शक बैठे रहे, शायद उन्हें उस आदमी की हरकत में कुछ भी ग़लत नहीं लगा होगा.
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