अनु गुप्ता:
जिन महिलाओं के पास रोज पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं उन्हें ‘उन दिनों’ में कितनी दिक्कत उठानी पड़ती होगी. इसी बात को सोचकर बेकार पड़े कपड़ों को जरुरतमंदों तक पहुंचाने के साथ-साथ गूंज संस्था ‘उन दिनों’ के लिए ग़रीब महिलाओं का ध्यान रख रही है. पीरियड्स के दौरान सबसे जरुरी समझने जाने वाले सेनेटरी नैपकीन को ग़रीब महिलाओं तक पहुंचाया जा रहा है.
‘नॉट जस्ट ए पीस ऑफ क्लॉथ’ मूवमेंट के तहत वर्ष 2005 से गूंज संस्था ‘माई पैड’ नाम से हाथ से बने कॉटन सेनेटरी नैपकिंस भी बना रही है. खास बात यह है की यह पैड्स गाँव में रहने वाली महिलाओं को दिए जाते हैं. हालांकि यह पैड्स फ्री नहीं बांटे जाते बल्कि इसके लिए महिलाओं को संस्थान के लिए ‘वर्क फॉर क्लॉथ’ करना पड़ता है.
एक पुरुष होने के बाद भी गूंज के संस्थापक अंशु गुप्ता को सेनेटरी नैपकिंस बनाने का ख्याल कहा से आया? वह बताते हैं, ‘एक गाँव में मैं दौरे के लिए गया था. पता चला एक महिला की मौत हो गई है. कारण पूछा तो पता चला कॉटन के ब्लाउज में लगे लोहे के बटन के गुप्तांग में चुभने से घाव हो गया था और संक्रमित होने पर महिला की मौत हो गई. महिला ने वो ब्लाउज पीरियड्स के दौरान पैड के रूप में इस्तेमाल किया था.
बस उस घटना ने ही मुझे इस बात का एहसास दिलाया की जिन महिलाओं के पास पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं वो पैड के लिए कहां से कपड़ा लाएगी. यही नहीं गाँव में सर्वे के दौरान पता चला की महिलाएं पीरियड्स के दौरान मिट्टी, राख घास जैसी चीजों का इस्तेमाल करती हैं. यह कितना हानिकारक हैं शायद बताने की जरूरत नहीं है.’
गूंज संस्था में पहनने वाले कपड़ों की मरम्मत के साथ-साथ ‘माई पैड’ बनाने का एक अलग ही सेक्शन है. यहाँ पुराने कॉटन कपड़ों को 2 बार धो कर, सूखा कर प्रेस कर के उनमें से लेस और बटन निकाल दिये जाते हैं और पैड के आकार का कपड़ा काट कर, उसमें कॉटन की कतरन भर कर पैड तैयार किए जाते हैं. इन पैड्स की एक किट तैयार की जाती है जिसमें 10 पैड होते हैं और एक अंडरवियर होती है. अंडरवियर भी संस्थान के वर्कशॉप में ही तैयार किया जाता है. महिलाओं को किट देने से पहले गूंज की टीम इसे इस्तेमाल करने का तरीका भी बताती है. इतना ही नहीं संस्थान में सभी महिला कर्मचारी भी ‘माईपैड’ का ही इस्तेमाल करती हैं.
अंशु कहते हैं, ‘हमने सब से पहले भारत में सुनामी त्रासदी के वक्त पीड़ित महिलाओं को माई पैड्स इस्तेमाल करने के लिए दिए थे और उन से जब सही फीडबैक मिला तो हमने इस काम को जारी रखा.’ आज संस्थान में हर रोज़ लगभग 4000-4500 के करीब पैड तैयार किए जाते हैं और जरूरतमंद महिलाओं तक पहुंचाए जाते हैं.पुराने कपड़ों को जरूरतमंदों तक पहुँचने वाली संस्था गूंज के संस्थापक अंशु गुप्ता को अपने इस अनूठे काम के लिए उन्हें रैमन मैगसेसे अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है. वे ग़रीब और जरूरतमंदों महिलाओं को अपने संस्थान में रोजगार भी दे रहे हैं.
गूंज के 22 राज्यों में सेंटर हैं और हर सेंटर को मिलकर देखा जाये तो लगभग 500 महिलाओं से भी अधिक महिलाएं हमारी संस्था में काम करती हैं. यह कह सकते हैं की स्टाफ और कर्मचारी मिलकर लगभग 70 फीसदी महिलाएं ही हैं.’ अंशु महिलाओं को जॉब देने से पूर्व उनका टैलेंट नहीं देखते बल्कि उनकी जरूरत देखते हैं. अंशु कहते हैं, ‘काम तो कोई भी सीख सकता है, मगर बात जरूरत की है. हम महिलाओं को काम में रखने से पूर्व देखते हैं की उन्हे नौकरी की कितनी जरूरत है.’