डॉ कायनात क़ाजी:
ट्रैवलर, फोटोग्राफर, ब्लॉगर:
दोस्तों आज मैं आपकी मुलाक़ात करा रही हूं एक ऐसी महिला से जिन्होंने परिवार की ज़िम्मेदारियां संभालते हुए अपने सपनों को पूरा किया. वो एक न सिर्फ एक ज़िम्मेदार मां हैं बल्कि एक सफल अनुवादक, लेखक, स्वतंत्र पत्रकार और यायावर हैं. मैं बात कर रही हूं ज़िन्दगी से भरपूर Alka Kaushik की.
पेश है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश..
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कुछ अपने बारे में बताएं.
मैं दिल्ली में जन्मी, पली-बड़ी हूं. फिलहाल ट्रैवल जर्नलिस्ट हूं, ट्रांसलेटर हूं, ब्लॉगर हूं. बहुत विरोधाभासी फितरत पायी है मैंने, जितनी ट्रेडिशनल हूं उतनी ही बिंदास भी. ‘दिल है हिंदुस्तानी’ की तर्ज पर जीने वाली वर्ल्ड ट्रैवलर हूं. घर में खालिस गृहस्थन और काम के मोर्चे पर एकदम प्रोफेशनल बन जाती हूं.
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मेरे पूर्वज उत्तराखंड से आए थे, सो सीने में पहाड़ी दिल धड़कता है. बहुत जल्दी शहरों को अलविदा कह अपने पुरखों की गोद में बसने की तैयारी में हूं. आप कह सकते हैं, मेरी तीन पीढ़ी पीछे जिस माइग्रेशन ने मेरे पहाड़ को खाली किया था उसे आबाद करने की गरज से ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की ज़मीन तैयार करने में जुटी हूं इन दिनों.
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आज आप जहां तक पहुंची हैं, यह सफर आसान तो बिल्कुल नहीं रहा होगा. कुछ बताएं अपने संघर्ष के बारे में.
सफर आसां हो जाए तो अफसाने भी तो नहीं मिलेंगे राह में. लिहाज़ा, कभी चाहा ही नहीं कि सीधा-सपाट हो जिंदगी का सफर. दौड़-धूप रही, मेहनतें, कोशिशें बहुत करती रही हूं मगर सब्र है कि जितना किया उससे ज्यादा नेमत बख़्शी है ऊपर वाले ने.
नब्बे के दशक में, जर्नलिज़्म की पाठशाला से निकलकर डीडी न्यूज़ और आकाशवाणी के न्यूज़रूम से प्रोफेशनल जिंदगी का सफर शुरू किया. जब आसमान में उड़ान भरने का वक्त आया तो परिवार की जिम्मेदारियों के तकाज़े पीछे खींचने लगे. मीडिया में काम करने के अनिश्चित घंटे निजी जिंदगी पर भारी पड़ रहे थे.
एक रोज़ ग्लैमर और संभावित शोहरतों की उन गलियों को अलविदा कहने का फैसला किया और एक पीएसयू में हिंदी आॅफिसर हो गई. नई नौकरी में पैसा था, फुर्सतें थीं, चैन था मगर दिल था कि बेचैनियों से भरा रहा. इसलिए फ्रीलांसिंग करने लगी थी.
इस तरह, थोड़ा बहुत नाता मीडिया से कायम रहा. पूरे 17 साल जारी रहा यह इम्तहान. अलबत्ता, घर वाकई ‘घर’ बना रहा. वहां सुकून और सब्र के सबक सिखाती रही जिंदगी. कुछ साल पहले जिंदगी का हैंडल फिर घुमा लिया और इस बार नौकरी की भेंट चढ़ाकर अपने लिए सफरी जिंदगी को चुना.
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अब ट्रैवल जर्नलिस्ट हूं, पैसे कम कमाती हूं और यात्राओं में रहना सुख से भरा हुआ है. उस पर लेखन का सुरूर हर कमी के अहसास को भर देता है.
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हम सब सपने देखते हैं, आपने भी ज़िन्दगी के लिए कुछ सपना देखा होगा? क्या था वो सपना ?
उस सपने में भी ट्रैवल ही था, हालांकि तब ट्रैवल का सिर-पैर भी नहीं मालूम था. दरअसल, वो कुदरत से नज़दीकियों के दिन हुआ करते थे. हम अक्सर गर्मियों में आंगन में खुले आसमान तले सोते थे. छुट्टियों में नाना-नानी के घर जाया करती तो उनसे नक्षत्रों, सितारों की कहानियां सुनती थी.
उन किस्सों-कहानियों में कोई सितारा ऋषि-मुनि होता था तो कोई दुष्ट राक्षस और मेरा बाल मन उड़कर स्पेस में पहुंच जाने को आतुर रहता था. फिर स्कूल में साइंस की विद्यार्थी हुई तो ब्लैक होल जैसे कन्सेप्ट हैरान करने लगे.
सोचती थी, जरूर एक रोज़ स्ट्रैटोसफियर को लांघना है, उस पार जाना है और किस्से-कहानियों और किताबों में बंद किरदारों या कन्सेप्ट्स से रूबरू होना है. शायद अंतरिक्ष यात्री बनना चाहती थी। मगर जिंदगी को कुछ और मंजूर था. उसने यात्राएं दी, दिल खोलकर दी मगर इसी ज़मीन पर. ‘उस पार न जाने क्या होगा’ की प्यास कायम है.
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Alka Kaushik उस लम्हे के बारे में बताएं जब आपको लगा कि यह मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट है?
उम्र का 40वां वसंत पार किया था, जर्नलिस्ट होने के नाते इंडियम आर्मी से सियाचिन ग्लेशियर पर ट्रैकिंग का न्यौता मिला था. उससे पहले ट्रैकिंग के ‘टी’ से भी वाकिफ नहीं थी. मगर एक गज़ब का भरोसा खुद पर हुआ था उस रोज़. घर और परिवार की जिम्मेदारियों को बहुत हद तक बखूबी निभा चुकी थी.
मन ने कहा, यही मौका है अपने लिए जीने की शुरूआत करने का और मैंने तपाक से उस न्योते को लपक लिया. दोस्तों ने समझाया- ‘क्या गज़ब करती हो, मर जाओगी.’ मेरे बावरे मन से आवाज़ आयी ‘लाइफ बिगिन्स एॅट 40. ‘ और ठीक दो महीने बाद मैंने खुद को सियाचिन बेस कैंप में पाया.
जिंदगी ने फिर पीछे मुड़कर देखने का मौका ही नहीं दिया. लगातार दौड़ रही हूं तभी से. रास्ते खुलते जाते हैं और मैं एक अनंत यात्री की तरह उन पर बढ़ती ही जा रही हूं.
मुझे लगता है हमारी जिंदगी का हर नया दशक हमें अपनी जिंदगी की धार को मोड़ने का एक मौका लेकर आता है. मेरे टर्निंग प्वाइंट ने मुझे जिंदगी को रीइन्वेन्ट करने का मौका दिया.
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आप भी कभी निराश हुई होंगी तब अपनी हिम्मत को कैसे समेटा? नकारात्मकता, हताशा से डील करने का क्या है आपका मंत्रा ?
मुश्किलें तो कभी पीछा नहीं छोड़तीं. बेहद अप्रत्याशित तरीके से दबोचती हैं कई बार. जब मैच्योर नहीं थी, बहुत हताश हो जाया करती थी, रिएक्ट भी जल्दी करती थी तो मुसीबत दूर होने की बजाय नई आफतें गले लग जाती थीं. फिर वक़्त को गुरु बना लिया.

अब सब्र से काम लेती हूं, कड़वे घूंट पी लेती हूं, गुस्सा थूक देती हूं. जबसे पेशेन्स को जिंदगी का मंत्र बनाया है लाइफ आसान हो गई है. हां, जिंदगी की रफ्तार को कम किया है. उसकी एवज में कुछ नुकसान भी उठाए हैं, मसलन, बैंक बैलेंस बढ़ाने पर ध्यान कम देती हूं.
जिंदगी को रेस की तरह नहीं जीती बल्कि उसे घूंट—घूंट पीती हूं. हर गुज़रते वक्त का भरपूर लुत्फ लेने की कोशिश करती हूं. संक्षेप में कहूं कि जिंदगी से इश्क करती हूं तो परेशानियां खुद ब खुद सहमी रहती हैं.
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आप एक आम महिला को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
बहुत जरूरी है अपने लिए जीना, अपने लिए सोचना, अपनी आंखों में अपने लिए ख्वाब सजाना. वो छोटा ही सही, मगर जरूरी है और हर छोटे-बड़े ख्वाब की तामील करने के लिए कमाना सबसे महत्वपूर्ण है. अपना कमाया पैसा आपको शोहरत दिलाए या नहीं मगर खुद पर भरोसा करना सिखाता है.
फ्रीडम देता है अपना खुद का पैसा. इसलिए, महत्वाकांक्षी बनिए, आलस और बेपरवाही को छोड़कर अवसरों को लूटना सीखिए. एक बार, बस एक बार अपने लिए जीकर देखिए.
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