डॉ कायनात क़ाज़ी:
ट्रैवलर, फोटोगाफर, ब्लॉगर:
‘Real Heroes Super Women’ की आज की कड़ी में हम बात कर रहे हैं शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता ManjuShree Srivastava की जिन्होंने अपना पूरा जीवन आदिवासियों के लिए समर्पित कर दिया है.
मंजूश्री श्रीवास्तव एकल विद्यालय अभियान की अध्यक्ष हैं और अपने ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी को त्याग कर ऐसा जीवन चुना जिसमें पिछड़े गांव, जंगल और ऐसे गरीब लोग थे जिन तक शिक्षा पहुंचाने में सरकार भी विफ़ल साबित हो रही थी.
क्या है Ekal Vidyalaya (एकल विद्यालय)
Ekal Vidyalaya (एकल विद्यालय) ‘एक शिक्षक वाले विद्यालय’ हैं जो पिछले कई वर्षो से भारत के उपेक्षित और आदिवासी बहुल सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में एकल विद्यालय फाउंडेशन की ओर से संचालित किए जा रहे हैं. भारत के वनवासी एवं पिछड़े क्षेत्रों में इस समय २5,000 से अधिक एकल विद्यालय चल रहे हैं.

“आओ जलायें दीप वहां, जहां अभी भी अंधेरा है” – यही ध्येयवाक्य लेकर भारत लोक शिक्षा परिषद् (पंजीकृत) ने वर्ष 2000 में भारत के उन बीहड़ स्थानों, जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों में व्याप्त निरक्षरता के अंधकार को मिटाने के लिये एकल विद्यालय योजना का सूत्रपात किया था.
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केवल एक शिक्षक के जरिए सुदूर स्थानों पर लोगो तक शिक्षा पहुंचाने का पावन कार्य यह विद्यालय करते हैं. आइये ManjuShree Srivastava से सुनते हैं, उनकी कहानी उन्हीं की ज़बानी………
मेरा बचपन सादगीपूर्ण वातावरण में बीता. मां और पिता दोनों शिक्षाविद्व थे. हम तीन भाई तीन बहन थे. मैं सबसे बड़ी बहन होने के कारण जल्दी ही बड़ी हो गई थी. घर में पठन-पाठन-चिंतन और वैचारिक प्रभुता का प्रभाव स्पष्ट रहा.
विद्यार्थी जीवन में स्वामी विवेकानंद के साहित्य से काफी प्रभावित रही. सौभाग्य से हम सभी भाई-बहनों को घर में संस्कारयुक्त व्यक्तित्व निर्माण का पूरा वातावरण मिला. प्रारंभ से ही स्कूल में राष्ट्र पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्रदिवस, सरस्वती पूजा इत्यादि बड़े ही अच्छे ढंग से मनाये जाते थे.

मैं स्वयं NCC की ट्रेंड कैडट थी. विभिन्न प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती थी. 1962 में जब चीन के साथ भारत का युद्ध हुआ तो हमने सैनिकों के लिए स्वेटर बुने.
1971 में पाकिस्तान के साथ जब युद्ध चल रहा था तब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम ए कर रही थी तो वहां से गुजरने वाली घायल सैनिकों की ट्रेन पर उन्हें बहुत से उपहार देने जाती थी. मनोविज्ञान में स्वर्णपदक प्राप्त किया.
लखनऊ कॉलेज मे प्रवक्ता रही. 1973 में विवाह हुआ. 1980 में एक बेटी को लेकर प्रवक्ता का पद त्यागर पति के साथ कोलकता आ गई. दूसरी बेटी का जन्म 1981 में हुआ. पांच साल बाद फिर से प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति हुई.
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यह मेरे जीवनका संक्रमण काल रहा. घर परिवार, बच्चे और नौकरी के बीच सब दायित्वों का समन्वय कर रही थी पर मन भटकन में था. मैं जीवन का मिशन ढूंढ रही थी. सोच रही थी कि मेरी मंजिल कहां है? स्वामी विवेकानंद के शब्द मुझे बार-बार प्रेरित करते “Arise Awake, stop not till the goal is reached”
सौभाग्य से उन्हीं दिनों मेरा परिचय वनवासी कल्याण आश्रम के साथ हुआ. मुझे एक मार्ग मिल गया और मैं हर छुट्टियों में जंगलों में जाकर वहां के जीवन का अध्ययन करने लगी. मैं जितना जंगलों में जाती आदिवासियों से मिलती उतना ही अपराध बोध होता.
यह 198688 की बात है.मैं तब के दक्षिण बिहार और अब झारखंड और ओड़िसा के दुर्गम गांवों में गई. बार-बार जंगलों की यात्रा की. उनकी झोपड़ी में बैठकर उनके साथ नमक भात खाया. मेरा जीवन बदल. मुझे जीवन का मिशन मिल गया.
सोचती थी कि हम कितने ऐशो-आराम में रहते हैं और यहां के लोग कितनी दयनीय अवस्था में रहते हैं. न सरकार और न कोई स्वंयसेवी संस्था उनके बीच काम रही थी. मैने निश्चय किया कि मैं एक तरफ तो वनवासी समाज की शिक्षा के लिए काम करुंगी और दूसरी तरफ शहर के प्रभावशाली और सक्षम लोगों में उनके दायित्व बोध जगाऊंगी.
1988 -89 में कोलकता में वनबंधु परिषद की स्थापना हुई. मैं इसकी शुरुआत में ही एक शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता के रुप में जुड़ गई. इस प्रकार मुझे एक शिक्षक और एकल विद्यालय अभियान की संस्थापक सदस्य बनने का गौरव प्राप्त हुआ.
पिछले 30 सालों में लद्दाख से कन्याकुमारी तक, असम से लेकर राजस्थान और गुजरात और भारत के चप्पे-चप्पे में, गांवों और शहरों में घूमते हुए इस विराट संगठन को खड़ा करने का महत्वपूर्ण अवसर मिला है.
2003 में कोलकता कालेज के प्रवक्ता पद से त्याग पत्र देकर मैं दिल्ली आ गई और पूरा जीवन एकल विद्यालय को समर्पित कर दिया. वर्तमान में एकल अभियान 70,000 गांवों तक पंहुच चुका है.
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पंचमुखी शिक्षा का यह अनोखा कार्यक्रम देश की गरीबी व अशिक्षा को मिटाकर युगांतकारी सामाजिक परिवर्तन की ओर गतिशील है. यही अब मेरे जीवन का ध्येय बन चुका है.
यह यात्रा बहुत चुनौतीपूर्ण रही. प्रारंभिक दिनों में जब बच्चे छोटे थे तो बहुत कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ा. लेकिन दृढ़ संकल्प, हिम्मत और 18 घंटे लगातार योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने के अभ्यास ने मुझे सफलता दिलाई. धीरे-धीरे परिवार में पति और बेटियों को समझ में आने लगा कि मैं एक बहुत नेक कार्य के लिए समर्पित हूं.
मैं अपनी बेटियों को भी जंगलों की यात्रा में साथ ले गई. उन्होंने स्वंय देखा कि जंगल में बच्चों के पास कपड़े नहीं है, खान नहीं है किताबें नहीं है. इसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे भी मुझे सहयोग करने लगी.

जब मैं प्रवास पर जाती तो वे दोनों अपने पिता के साथ रहती. पतिदेव ने भी बहुत सहयोग दिया. उन्होंने स्वीकार कर लिया कि यह मेरे जीवन का एक मिशन है.
सामाजिक जीवन में जब समाज आपको एक रोल मॉडल के रूप में देखने लगता है तो आपको व्यक्तिगत सुख-दुख सबसे ऊपर उठना पड़ता है.
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