SARAS MELA-जो अपने आप में समेट लाता है हुनरमंद महिलाओं के संघर्ष की दास्तान

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डॉ कायनात क़ाज़ी:

ट्रैवलर, फोटोग्राफर, ब्लॉगर:

भारत के अलग अलग कोनों में घूमते हुए कभी कभी कुछ ऐसा नज़र आ जाता है जो दिल को छू जाता है. देश में जगह जगह लगने वाला Saras Mela भी कुछ ऐसा है जिसे देखकर लगता है मानो इसने अपने अंदर हुनरमंद महिलाओं के संघर्ष की दास्तान को समेट रखा है. 




दूर से किसी हैंडीक्राफ्ट मेले जैसा ही दिखने वाले सरस मेले के हर एक स्टॉल की अपनी एक कहानी है. इन स्टॉल की ख़ासियत यह है कि इनको चलाने वाला कोई पुरुष नहीं है बल्कि देश के कोने कोने से आई वो हुनरमंद महिलाएं हैं जो दुश्वारियों की एक लम्बी यात्रा तय कर आज यहां तक पहुंच पाई हैं.




सरस मेले में देश के कोने कोने से आई प्रतिभाएं देखने को मिलती हैं. कश्मीर की कशीदाकारीतमिलनाडु की लकड़ी पर उकेरी गई पौराणिक नक्काशीकलमकारीउत्तर पूर्वी राज्यों के हैंडलूमराजस्थान के गांवों में बने रंगों से सजे मैट और न जाने क्या क्या?

देश भर मे आयोजित होने वाले सरस मेले भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की अनूठी पहल है जिसमें गांवों की ग़रीब महिलाओं के हस्तशिल्प के हुनर को बाज़ार उपलब्ध कराया जाता है. इस मेले का मुख्य मकसद है इन हुनरमंद महिलाओं को बिचौलियों के चंगुल से बचाने का. 




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इसके लिए मंत्रालय सीधे तौर पर देश के बड़े शहरों मे मुफ़्त में इन हुनरमद महिलाओं को न केवल बाज़ार की सुविधा उपलब्ध कराता है बल्कि उनके आवास व खाने पीने की व्यवस्था भी करता है. जिससे ये महिलाएं समाज मे स्वाभिमान के सांथ जी सके. आमतौर पर स्टॉल उन महिलाओं के होते हैं जो स्वंयसहायता समूह से जुड़ी होती हैं.

डॉ कायनात क़ाज़ी
डॉ कायनात क़ाज़ी

आम तौर स्वयं सहायता समूहों मे विधवा ग़रीब या किसी हादसे की शिकार महिलाएं होती है. दीन दयाल अंत्योदय योजना की प्रमुख व ग्रामीण विकास मंत्रालय की निदेशक अनीता होलकर बघेल ने बताया कि हमारा मंत्रालय इन ग़रीब महिलाओं के जीवन को सम्पन्न बनाने व इनको अपने पांवों पर खड़े करने के लिए प्रतिबद्ध है.

उन्होंने बताया कि बाजार के अनुरुप तैयार करने के लिए हम इन महिलाओं को नई तकनीकों का भी प्रशिक्षण दे रहे हैं. कई महिलाओं ने बातचीत मे कहा कि सरस मेलों ने उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने मे मदद की है.

बंगाल से आई सरीना बीबी की ज़ुबानी सुने- बंगाल के काथा की कढ़ाई के क़द्रदान तो पूरी दुनिया में है लेकिन हम जैसी घरेलू महिलाएं जो घरों में बैठ कर बड़ी मेहनत से उसे तैयार करती हैं उन्हें कुछ खास नहीं मिलता था. दलाल हमसे कौड़ियों के दाम में इसे खरीद कर ऊंचे पैसों में बड़े शोरूम में बेचते हैं. 

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सरीना बीबी कहती हैं मेरे गांव की सभी महिला कारीगरों की यही स्थिति थी. तब हमने स्वंय-सहायता समूह बनाया और आज हम अपना बनाया माल सीधे ग्राहक को उचित मूल्य पर सरस मेले में बेचते हैं. हमारे समूह से जुड़कर महिलाएं इज़्ज़त से अपनी जीविका कमा रही हैं.

मेले में घूमते हुए मुझे एक से एक प्रेरणादायक कहानियां सुनने को मिलीं. हरियाणा से आई पूजा परिवार और बच्चों के लिए कुछ करना चाहती थीं लेकिन गांव का माहौल ऐसा था कि घर से बाहर निकलने की इजाज़त न थी. पर पूजा की लगन सच्ची थी तो वह महिलाओं के इस समूह से जुड़ीं.

उसके पास कोई ख़ास हुनर नहीं था लेकिन कुछ करने की लगन थी. गांव के परिवेश में पली बड़ी पूजा ने गेंहूंबाजरा और सोयाबीन की खेती ही होते देखी थी तो सोचा इस से ही कुछ बनाया जाए और पूजा ने रोस्टेड हेल्दी स्नेक्स की पूरी की पूरी श्रंखला तैयार कर डाली.

10 महिलाओं का यह समूह गांव के अनोखे स्वाद जैसे बाजरे के लड्डूखिचड़ी को पूरे देश को चखा रहे हैं. आज पूजा खुश हैं और चहकते हुए अपनी यात्रा के बारे में बताती हैं. वह समय-समय पर खाद्य संरक्षण विभाग की ओर आयोजित फ़ूड प्रोसेसिंग से सम्बंधित वर्कशॉप में जाकर अपने हुनर में और इज़ाफ़ा करती हैं और गांव में आकर अन्य महिलाओं को भी अपने हुनर को निखारने में मदद करती हैं.

यहां आई महिलाओं के जीवन में त्रासदियों की भी कोई कमी नहीं रहीफिर वो बलात्कार से पीड़ित महिला हो या फिर घरेलू हिंसा की शिकार महिला या फिर पति और ससुराल से त्यागी गई स्त्री. इन बेसहारा महिलाओं को इज़्ज़त से सर उठा कर जीने की हिम्मत उनकी मेहनत और हाथ की कारीगरी ने दी है.

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ऐसी ही एक कहानी बस्तर संतोषी देवी की है. कांसे को पिघलाकर मूर्तियां और हैंडीक्राफ्ट बनाने की प्राचीन कला आदिवासी समाज से विलुप्त हो रही थी. नई पीढ़ी का धयान कतई इस और न था. तब वृद्ध संतो देवी ने उस मरती हुई कला को नई पीढ़ी को न सिर्फ सिखाया बल्कि गांव से हो रहे पलायन को भी रोका.

परदेस में मज़दूरी करने के बजाए अपने ही गांव में लोगों को इस कला से जोड़ कर स्वालम्बन की राह दिखाई. आज संतोषी देवी बड़े स्वाभिमान के साथ अपनी आदिवासी ज्वैलरी पहने अपने स्टॉल पर बस्तर की आदिवासी कला के सुन्दर आइटम बेचती हैं और शान से जीती हैं.

500 स्वय सहायता समूह, 230 स्टॉल और 30 राज्यों से आई हुनरमंद महिलाऐं सरस मेले की पहचान हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय देश भर में इन सरस मेलों का आयोजन कर रहा है. इन मेलों में महिलाएं न केवल अपने बनाए हुए उत्पाद बेच सकती हैं बल्कि यहां आयोजित होने वाली कार्यशालाओं में हिस्सा लेकर अपने आप को कुशल उधमी भी बना रही हैं.

सरस मेले में डिज़ाइनिंगसंवाद कौशलई मार्केटिंगसंचार ज्ञान पर भी उन्हें बहुत कुछ सिखाया जाता है. सबसे अच्छी बात यह है कि देश भर में लगने वाले सरस मेलों में स्टॉल लगाने के लिए इन्हें कोई शुल्क नहीं देना है बल्कि मंत्रालय इन्हें प्रतिदिन के एक हज़ार रूपए का टी ए-डी ए भी देता है. 

मेहनतकश इन महिलाओं के जज्बे को देखकर इनको सलाम करने को जी चाहता है. जिंदगी की परेशानियों से लड़कर परिवार के लिए कुछ करने का यह जज्बा न सिर्फ उन्हें आत्मसम्मान दिलाता है बल्कि हमारे समाज को प्रेरणा भी देता है.

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