प्रितपाल कौर:
(वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका:)
“ मैं जा रही हूं”
“कहां?”
“बाहर”
“वापिस कब आओगी?”
“मम्मी आप सवाल बहुत पूछती हो. आप को पता है, फ्रेंड के घर जा रही हूं. दो तीन घंटे में आ जाऊंगी.”
“अच्छा.”
मैं खुद को रोकती हूं एक और सवाल पूछने से. सुबह उठते ही बेटी ने बता दिया था कि आज सब दोस्त एक दोस्त के घर बैठेंगे. लेकिन मां होने का फ़र्ज़ शायद हम मांएं कुछ ज्यादा ही गंभीरता से निभाती हैं, चाहे कामकाजी हों या गृहिणी. लेकिन दोष भी तो नहीं दिया जा सकता खुद को. रोज़ ख़बरों में तरह-तरह की बातें सुनने देखने को मिलती हैं. किशोर बच्चों की देखभाल तो वैसे भी बहुत सावधानी से करने की ज़रुरत होती है. चिंता रहती हैं कि उन्हें Safe कैसे रखें?
ये वो उम्र है जब समझदारी कुछ कम, जोश ज़रुरत से कुछ ज्यादा, होश मात्रा में काफी कम और दम-ख़म जवानों से भी ज्यादा भरा होता है इनके अन्दर. अब ऐसे में मां-बाप परेशान न हों इनकी देख-रेख करते हुए तो क्या करें?
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लेकिन परेशान होने की ज़रुरत भी तो नहीं. नए-नए पंख लगे हैं. इन्हें आजादी भी देनी है और अपने पंखों की छांव तले सुरक्षित भी रखना है. मगर ये दोनों काम एक साथ कैसे हों?
1-नज़र तो रखनी ही है लेकिन कुछ इस तरह कि उन्हें बंदिश का एहसास कम दिलाये. बंदिश भी हो लेकिन आजादी छीने जाने का कड़वा एहसास भी न हो. संवाद कभी न टूटे इस बात का ख़ास ख्याल रखना होगा.
2- बच्चों की किशोरावस्था की राह सिर्फ माता-पिता के लिए मुश्किल नहीं है, खुद किशोर बच्चे भी किन हालात से गुज़रते हैं उन्हें हमें समझने की ज़रुरत है.
3-उनके भीतर जो बदलाव आते हैं वे खासे तकलीफदेह भी हो सकते हैं. शरीर में बदलाव के साथ-साथ मन में भावनाओं के बवंडर भी उठते हैं. उनसे उन्हें जूझने में मदद तो हमें ही करनी होगी.
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इस उदाहरण को समझिए-

एक शाम मेरी किशोर बेटी ने जो कहा वो मैं कभी नहीं भूल नहीं सकती- मां, आप तो मेरा साथ हमेशा हो. आप का प्यार अन-कंडीशनल है. लेकिन दोस्त मेरे लिए इस वक़्त बहुत ज़रूरी हैं. वे इमोशनली जहां हैं, मैं भी वहीं हूं. वे मुझे आप से भी बेहतर समझते हैं और मैं उन्हें. इस वक़्त हम लोगों को एक दूसरे की बहुत ज़रुरत होती है. जब हमारा टीनएज निकल जायेगा न तब मैं आप के फिर ज्यादा करीब हो जाऊंगी.”
हालांकि में उसकी बात से पूरी तरह सहमत नहीं थी लेकिन असहमत भी नहीं. विवाद में न पड़ कर एक दिन मैंने उससे ये कहा- मां भी इमोशनली वहीं हो सकती है जहां बच्चा हो, और मेरी बात उसे समझ में आ गयी.
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4-यानी रास्ता भी खुद ये ही बतायेंगें हमें. बस हमें सजग रह कर राह तलाशनी है और इन्हें अपने साथ ले कर चलना है. कुछ आजादी, कुछ अंकुश और सबसे बड़ी बात उन्हें सुनना. ये बहुत ज़रूरी है. उनकी बात पूरी सुनें.
कहते हैं न कि चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन. हमें नए ज़माने की नई चुनौतियों के बीच एक नयी परिभाषा से गुज़रना है, किशोर बच्चों को बड़ा होते हुए देखने और उसमें अपनी भागीदारी निभाते हुए- “किशोर एक नयी पढ़ी के माता- पिता को जन्म देता है.”
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