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बुशरा शेख

मेरी उम्र 24 साल है, पोस्ट ग्रेजुएशन की छात्रा हूं और दिल्ली जैसे महानगर में पली बढ़ी हूं. परिवार में तालीम लेने वाले लोगों की कमी नहीं है (मानसिक स्तर पर भले ही तालीम से दूर दूर तक कोई लेना देना न हो). मेरे पिता की चार संताने हैं और हम चारों ही लड़कियां हैं. हालांकि लड़की होने का कोई मलाल अब तक उनमें दिखा नहीं. पढ़ाई लिखाई को लेकर हमें बचपन से ही प्रोत्साहित किया जाता रहा है (ये पढाई लिखाई अच्छा कैरियर बनाने तक ही सीमित रहे तो ही ठीक है. जैसे ही आपने उस शिक्षा का इस्तेमाल समाज के बनाये नियम कायदों को तोड़ने और उनके विरुद्ध जाने के लिए सोचा तो सचेत हो जाइए).

कुछ चीज़ों को लेकर उनका रवैया हमेशा से बेहद सख़्त रहा है, मुझे क्या पहनना है क्या नहीं, घर से कितने बजे निकलना है, कब वापस आना है, किनसे बात करनी है किसे मित्र (उनके अनुसार लड़कियां) बनाना है इन सबका फ़ैसला करने का एकमात्र अधिकार मेरे पिता को प्राप्त है. शाम 6 बजते ही मेरे फ़ोन की घण्टी बजने लगती है, ये याद दिलाने के लिए कि मेरे वापस आने का समय अब हो चला है और अगर फोन उठाने में ज़रा भी कोताही बरती तो बदले में जो सब सुनना पड़ता है वो आपको भीतर तक तोड़ने के लिए काफी होता है. ख़्वाहिश, आज़ादी, चुनाव और फैसले लेने के अधिकार  ये सब भले ही मेरी ज़िन्दगी से जुड़े शब्द हों लेकिन यह मेरा अधिकार प्राप्त क्षेत्र नहीं.

आज के दौर में जब मैं मेरी उम्र की लड़कियों को उनके ज़िन्दगी के तमाम फैसले स्वयं लेते देखते हूं, देश विदेश के राजनितिक, सामाजिक, महिला सम्बन्धी मुद्दों, लिव इन, सेक्स की आज़ादी, पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं पर अपने मत को मुखर होकर रखते हुए देखती हूं तो अपने पिछड़ेपन का एहसास तेज़ होने लगता है. हमारे बीच की पिछड़ेपन की खाई वक़्त के साथ बढ़ती जायेगी. मैं अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़ती रहूंगी और वो इन सब से काफ़ी आगे की लड़ाई लड़ रही होंगी. ये वो पिछड़ापन है जिसकी डोर रिश्तों के साथ गूंथ कर बंधी हुई है. परिवार नामक संस्था की इज़्ज़त का बोझा आपकी इच्छा के बिना आप पर लाद दिया जाता है और रिश्तों की बेड़िया आपके क़दमो को समय समय पर कंट्रोल करती रहती है. आप कई बार इन सब बन्धनों और सीमाओं को तोड़ कर निकलने की कोशिश तो करती हैं लेकिन वो सीमाएं अपना दायरा मुसलसल बढ़ाती जाती है और आप थक कर बैठ जाते है. मेरे शरीर की बनावट, मेरे लिंग का आधार भला कैसे मेरे फैसलों और मेरी इच्छाओं को मुझसे छीन सकता है?

भला ये कैसी मानसिकता है जो मेरी योनि में अपने वर्चस्व, इज़्ज़त को महफ़ूज़ रखने का ढकोसला करती फिरती है. हर दिन हर जगह..आख़िर ये कैसा भय है, कैसी असुरक्षा की भावना है जो मेरे शरीर के अंगों के बढ़ते उभारों के साथ बढ़ता जाता है. यह लड़ाई मै पिछले 10 साल से भी ज़यदा समय से लड़ती आ रही हूं और न जाने कब तक लड़ती रहूं. आख़िर वो कब मेरी हर इच्छा के पीछे की ज़रूरत तलाशने से बाज़ आएंगे, कब समझेंगे कि दुप्पटे से छाती ढक लेने भर से लोगों की मानसिकता नहीं ढ़क जाती वो गन्दी नज़र दुपट्टे को चीरते हुए भी निकल जायेगी.

मेरी आत्मा को योनि के भीतर क़ैद न समझे. आख़िर वो कब मुझे खुलकर ये कहेंगे की लड़की होने का अर्थ पति के आगे सर झुकना नहीं होता, उसकी हर नाजायज़ हरक़त को ज़ायज़ समझ के स्वीकार करना नहीं होता, बेज़ुबान होकर जीना और सहना नही होता बल्कि लड़की होना इन सब रूढ़िवादिताओं को कुचलने से भी अधिक पावरफुल होना होता है और शारीरिक बनावट की भिन्नता से अधिकारों में भिन्नता हरगिज़ नहीं लायी जा सकती है.

( बुशरा शेख जामिया मिलिया इस्लामिया के मास कम्यूनिकेशन की स्टूडेंट हैं और एक लड़की होने के नाते अपने परिवाक के दवाब को लेकर यह पोस्ट उन्होंने फेसबुक पर लिखा है )

2 COMMENTS

  1. आत्मा कभी कहीं कैद नहीं होती, उसका संचालन माध्यम कैद होता है परिवेश में। फिक्र करना अधिकार जताना नहीं होता है, नजरिया संतान समझती है बेटा और बेटी नहीं। उद्दात उदारवादी सोच इतना ही निश्छल होता तो उसकी इतनी कमियां उजागर नहीं होतीं, संविधान प्रदत्त अधिकार अपने आप में संप्रभु नहीं होता क्योंकि उसमें भी नीति निर्देशक तत्व समाहित होते हैं। कानूनन हर चीज का निराकरण तलाशना उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि कोर्ट में मिली जीत पूरी आपकी नहीं बल्कि पराश्रयी होती है। कानून के बल बूते अपना नया समाज गढ़ने का मंसूबा पालने वालों की नींव खोखली होती है क्योंकि कानून से प्राप्त अधिकार सर्वग्राह्य नहीं होता, जबकि कर्तव्य से अर्जित अधिकार सर्वग्राह्य और शाश्वत होता है। निश्यय ही शरीर से लेकर अपनी सोच तक के लिए आप पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं और होना भी चाहिए। लेकिन स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का विवेक तो हो। बाप की फिक्र को धौंस मान लेना अविवेक को दर्शाता है, यह इसलिए कि ‘मनुष्य एक सामााजिक प्राणी है’ समाजशास्त्र के इस पहले नियम का बोध होना जरूरी है क्योंकि पुरुष या स्त्री का अलग-अलग अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है, क्योंकि वे निर्वात के नहीं बल्कि सामाजिक प्राणी हैं।

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