सजने संवरने का हक सबको है. स्त्री पुरुष सबको. सजना संवरना जीवन शैली का हिस्सा है. हम सुंदर दिखना चाहते हैं, हम साफ सुथरा रहना चाहते हैं और भीड़ में सबसे अलग दिखना चाहते हैं. हम सबका अलग स्टाइल स्टेटमेंट होता है जिससे हम औरों से अलग दिख सकें. अब Slogan बदल जाना चाहिए- जो ख़ुद से करे प्यार, वो संजने सवरने से कैसे करे इनकार !
ऐसा न होता तो एक्टिविस्ट स्त्रियां अपने माथे पर बडी बड़ी बिंदी और आंखों में मोटे मोटे काजल की परतें न बिछा रही होतीं. उनके कपड़े देखिए. सूती साड़ियां या कुर्ते भी ब्रांडेड होते हैं. सादगी ही उनका सौंदर्य है मगर कुछ अनिवार्य सज्जा के साथ. लिपिस्टिक से दूरी जरुर बरतती हैं मगर काजल और बिंदी का मोह नहीं छूटता. अगर ये मेकअप आपकी पर्सनैलिटी को निखारता है, मुखर बनाता है तो क्यों न करे ऐसा सिंगार .
मेकअप का मतलब हमेशा अपने को काम्य बनाना नहीं होता. मेकअप के मायने बदल गए हैं. एक लोक मुहावरा बहुत प्रचलित है- ” आप रुपी भोजन, पर रुपी सिंगार”. खाना अपने मन से, अपनी पसंद का खाइए और सिंगार ऐसा करे जो दूसरों को भाए. अब इस कहावत के मायने बदल गए हैं.
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मेकअप या ड्रेसिंग सेंस अब दूसरों को खुश करने लिए नहीं, ख़ुद को प्यार करने का प्रतीक है. यह दौर अलग है. इस दौर में हम दूसरों के नहीं, अपने क़रीब रहते हैं और अपनी खुशी की पहले प्राथमिकता देते हैं. हमें सजना है,अपने लिए ताकि हम ख़ुद को सुंदर लग सके.
“माई च्वायस -माई बॉडी ” के दौर में यह सोचना भी बेवक़ूफ़ी है कि लड़कियां -स्त्रियां किसी को रिझाने या खुश करने के लिए मेकअप करती हैं या फ़ैशन करती हैं. अब अपना चेहरा, अपनी देह और अपनी पसंद है. आज भी गांव क़स्बों में लड़कियां मनचाही पोशाक नही पहन सकती और न अपने बाल छोटे करवा सकती हैं. इसकी इजाज़त लेनी पड़ती है.
शहर मुक्त है इन वर्जनाओं से जहां लडकी अपनी मर्जी से कपड़े पहन रही और अपने को संवार कर रखती है.
मेकअप का मतलब अबौद्धिक होना नहीं है. बौद्धिकता ये नहीं कहती कि स्त्रियां मेकअप विहीन रहें. यह पुरानी सोच है कि साज-सिंगार उत्तेजना जगाते हैं . मेकअप का काम अब सिर्फ ऐंद्रिकता जगाना भर नहीं रह गया है. वह हमारे रुटीन का हिस्सा है. यह आपको संभ्रांत बनाए रखता है.
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श्रृंगार एक रस भी है और इसका एक अर्थ कामुक भी होता है. जो रति ( प्यार) नामक स्थायी मनोभाव से उत्पन्न होता है. इस दुनिया में जो भी उज्जवल है- उसे श्रृंगार कहना चाहिए. सजना उस अर्थ में नहीं कि “बनी ठनी” मुग्धा नायिका बन कर प्रियतम की बाट जोहे, वे आएं और रुप को सराहें. सजना-संवरना सार्थक हो जाए.
सजना अब ऐसे भी होता है कि आप जिस सोसायटी में रहते हैं, उसके साथ चल सकें. सजना मतलब साफ सुथरा रहना और ख़ुद को ऐसे संवारना कि आपका व्यक्तित्व पूरी तरह निखर कर सामने आए. यह सब अपने लिए है. दूसरों के हिसाब से जीना छोड़ दिया तो मेकअप कहां से दूसरों के हिसाब से करेंगी.
सेल्फी लव के दौर में “आप रुपी ” मेकअप होता है. “पर रुपी” का चलन खत्म. भर्तृहरि ने अपने श्रृंगार शतकम में जिसको पुरुषों को अनुरागी बनाना बताया है, अब वह उलट है. ख़ुद अपने प्रति यह अनुराग भाव जगाता है. मुंह पर क्रीम लगाना मानो अात्म लेपन है. रुह भी संवरती है और आत्म विश्वास पैदा करती है. कुछ हल्की कविताएं याद आ रही जिसमें कहा गया- “नारी तुम सिंगार करो, तन का नहीं मन का.”
हो सकता है कुछ स्त्रियां तन के ज़रिए मन का सिंगार कर रही हों. अपना तरीक़ा होता है और अपनी मर्जी होती है.
सो हमें मेकअप या सौंदर्य प्रसाधनों को अलग नज़रिए से देखने की जरुरत है जो कई बार अनगढ को सुगढ बना देता है. सिवाए गोरेपन के क्रीम के. उसके वाहियात सपने आत्म विश्वास भी छीन लेते हैं.