डॉ कायनात क़ाज़ी:
ट्रैवलर, फोटोग्राफर, ब्लॉगर :
आज है Chipko Movement की 45 वीं वर्षगांठ. वन संरक्षण के लिए 1973 में सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन की शुरुआत उत्तरप्रदेश से भले ही की हो लेकिन इस बड़े और प्रभावी आंदोलन की जड़ें राजस्थान के बिशनोई समाज से जा मिलती हैं.
बात 1730 की है जब खेजड़ी के पेड़ को बचाने के लिए 363 बिश्नोईयों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी थी. आपको जानकार हैरानी होगी की इस दिल को दहला देने वाले आंदोलन की शुरुवात एक स्त्री और उसकी दो बेटियों ने की थी.
उस महान स्त्री का नाम अमृता देवी था. 1730 में खेजड़ली में पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई समाज ने जो बलिदान दिया है वो मानव इतिहास में अद्वितीय है. इत्तिफ़ाक़ देखिये कि उत्तराखंड में 1973 में जब चिपको आंदोलन छिड़ा उसका श्रेय भी एक महिला को ही जाता है. उनका नाम था गौरादेवी.
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ऐसा ही एक समाज है बिश्नोई समाज.
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बिश्नोई समाज महान सामाजिक संत गुरू जम्भेश्वर (जंभोजी) महाराज (1451-1536) का अनुयायी है और गुरू जम्भेश्वर के बताए 29 नियमों का पालन अपनी जान से भी ज़्यादा करता है. उनकी शिक्षाओं ने प्रकृति संरक्षण को पूरे समाज का सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय बना दिया.

इनका प्रकृति प्रेम किसी से छुपा नही है. अगर कहें की यह लोग सही अर्थों मे प्रकृति के रक्षक हैं तो यह ग़लत नही होगा. बिश्नोई समाज के लोग खेजड़ी के पेड़ और चिंकारा हिरण की रक्षा अपनी जान से भी ज़्यादा करते हैं. यहां इस से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं. खेजड़ली गांव के निवासी रतन सिंह बताते हैं-
“यह बात सन् 1730 की है. एक ऐसी घटना हुई जिसका प्रभाव मानव जीवन पर सदा के लिए पड़ा. खेजड़ली गांव के निवासियों का संबन्ध बिश्नोई सम्प्रदाय से है, जो कि गुरु जम्भेश्वर के अनुयायी हैं.
गुरु की शिक्षा के अनुसार हरे पेड़ को काटना और पशुओं को मारना वर्जित है. जिसका पालन पूरा विश्नोई समाज करता है. उस समय जोधपुर पर राणा अभय सिंह का शासन था. अभय सिंह एक आलीशान भवन बनवा रहे थे जिसके लिए बहुत सारी लकड़ियों की आवश्यकता थी.
दरबारियों ने राणा को खेजड़ी गांव से पेड़ काट कर लकड़ी मंगाने की सलाह दी क्योंकि पूरे राज्य में सिर्फ यहीं खेजड़ी के पेड़ पाए जाते थे. सैनिक लकड़ी लेने के लिए गांव में गए और पेड़ काटने लगे. गांव की एक महिला अमृता देवी जो रामो जी बिश्नोई की पत्नी थी ने सिपाहियों को रोका.
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वह नहीं माने तो अमृता देवी और उनकी कन्याओं ने खेजड़ी के पेड़ को कस कर पकड़ लिया. पर सिपाहियों पर तो जैसे खून सवार था. उन्होंने ग्रामीणों के विरोध को बड़ी बर्बरता से कुचल दिया.
खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए हुए संघर्ष में एक के बाद खेजड़ली गांव के 363 बिश्नोईयों ने अपने जीवन का बलिदान दिया. बिश्नोई समाज ने उन्हें शहीद का दर्जा दिया और इनकी याद में हर साल खेजड़ली में मेला भी लगता है.
बिश्नोई सम्प्रदाय का यह बलिदान साका/खडाना कहलाता है. 12 सितम्बर को प्रत्येक वर्ष खेजड़ली दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी घटना से वन्य जीव संरक्षण के लिए जागरूकता फैली और वन्य जीव सरंक्षण के लिए कड़े कानून बने.
आज भी वन्य जीव सरंक्षण के लिए दिया जाने वाला सर्वक्षेष्ठ पुरस्कार अमृता देवी वन्य जीव पुरस्कार है. बिश्नोई समाज हिन्दू धर्म का एक मात्र ऐसा समाज है जो मरने के बाद चिता नहीं जलाता बल्कि ज़मीन में दफनाता है.
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यह प्रथा भी एक प्रकार से लकड़ी को न जलने और पेड़ों के संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाती है. वहीं कई सौ साल बाद जब उत्तराखंड में चिपको आंदोलन छिड़ा तो उसके मूल में भी एक महिला के साहस के प्रमाण मिलते हैं.
जी हां मैं बात कर रही हूं गौरा देवी की जिन्हें चिपको वूमेन के नाम से भी जाना जाता है. उत्तराखंड के रैंणी गांव में एक छोटे से परिवार की यह साधारण महिला प्रकृति संरक्षण के लिए इतना बड़ा असाधारण काम कर गुज़रेगी किसको पता था.
आज पूरा विश्व पर्यावरण संरक्षण के लिए उन्हें याद कर रहा है. गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं”.
गूगल ने चिपको आंदोलन से जुड़ी महिलाओं के योगदान को याद करने के लिए अपना डूडल समर्पित किया है. हमारे देश के कोने कोने में ऐसी नारी शक्ति वास करती है कि जिसमे दुनिया बदलने का अदम्य साहस है ज़रूरत है तो बस उनकी प्रतिभा को पहचान कर उनकी आवाज़ को बल देने की.
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