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कमलेश जैन

16 दिसंबर,यह तारीख लोगों के जेहन में ऐसे दर्ज़ हो गई है कि क़रीब साढ़े चार साल बाद भी लोग निर्भया को नहीं भूले. निर्भया को याद करके जहां लड़कियों और महिलाओं में ग़लत के खिलाफ लड़ने का हौसला आ जाता है वहीं भारतीय कानून भी इस तारीख को सबक की तरह याद रखे हुए है. शायद यही वजह है कि इस हादसे के बाद महिलाओं की सुरक्षा की दृष्टि से कई सख्त कानून बनाए गए. इतना ही नहीं चार साल में महिलाओं ने भी काफी हिम्मत दिखाई. जो महिलाएं घर के कोने मे दुबकी पड़ी रहती थीं, जुल्म सहती रहती थीं उनमें भी हिम्मत आ गई जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की.

मगर हमारे देश के लोगों की मानसिकता का क्या करें जो घर-परिवार, समाज और हमारे परिवेश से बनता है. लोगों की मानसिकता अब भी नहीं बदली है. जब निर्भया केस हुआ तो लोगों ने अलग -अलग बात की. किसी ने कहा कि उसे इतनी रात में बस लेने की क्या जरूरत थी? मेरा सवाल है कि यह कहां लिखा हुआ है कि महिलाएं रात में 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकती? महिलाओं को घर से बाहर निकलने से रोकने के बजाए पुरुषों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है.

यह मामला जब हुआ तब इस केस से जुड़े दो पुरुष वकीलों में से एक ने कहा कि ‘मिठाई का डिब्बा खुला होगा तो लोग उसे खाएँगे ही.’ उस वकील के हिसाब से हम महिलाएं मिठाई का डिब्बा हैं. अब खुद ही हिसाब लगा लीजिये की जब न्याय दिलवाने और देने वालों की सोच महिलाओं के प्रति ऐसी होगी तो फिर और लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है. निर्भया के साथ हुए उस जघन्य घटना के बाद भी सामंतवादी पुरुष मानसिकता में कोई कमी नहीं आई. बलात्कार की घटनाएं रुकी नहीं.

16 दिसंबर के बाद बड़ी संख्या में महिलाओं ने अपने अधिकार और सम्मान हनन के खिलाफ कई मुकदमे भी दर्ज किए, लेकिन मुकदमों की फाइलें अभी भी कोर्ट की किसी टेबल पर धूल चाट रही होंगी. क्योंकि जितनी संख्या में केस दर्ज हुए, उतनी रफ्तार से उनकी सुनवाई नहीं हुई और अपराधियों को सजा भी नहीं मिली. हमारे न्याय व्यवस्था में कई ऐसी कमियां है जिसकी आड़ में अपराधी छूट जाते हैं.

अपराधी का वकील किसी न किसी बहाने उसे जमानत दिला देता है और पीड़ित लड़की को हर बार अदालतों में वकीलों के ऊटपटांग सवालों से शर्मसार किया जाता है. कुल मिला कर कहा जाए तो कानून तो सख्त हुआ मगर कानून व्यवस्था की सुस्ती वहीं की वहीं बनी हुई है. निर्भया मामले में मीडिया का बहुत दवाब रहा. इसलिए इस केस में सब कुछ जल्दी-जल्दी निपटाया गया.

बलात्कार के मामले पहले भी हुए. यह कहना कि यह अधिक क्रूर था इसलिए इसे मीडिया ने ज्यादा हाइलाइट किया गलत होगा, क्योंकि बलात्कार किसी भी लड़की के साथ हो अपराध की श्रेणी में सभी को मापने का पैमाना तो एक ही है. हां देश की राजधानी में हुआ इसलिए इस सरकार पर दवाब ज्यादा पड़ा. इस केस में मीडिया, आम जनता और युवाओं ने सरकार पर एक साथ दवाब बनाया. यही दवाब हर केस में बनाया जाये तो शायद कोई केस सालों तक लंबित नहीं रहे क्योंकि कायदे से बलात्कार के मामलों में अपराधी को तीन महीने के अंदर ही सजा मिल जानी चाहिए. 

पुलिस की यदि सक्रियता रहे तो ऐसे मामलों में पीड़ित को त्वरित न्याय मिल सकता है. लेकिन कभी-कभी लगता है पुलिसिया व्यवस्था में भी कितनी कमियां है. स्टेशन और कोर्ट रूम में आधुनिक तकनीक वाले यंत्रों नहीं है.  मैं देखती हूँ कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में पुलिस स्टेशनों में कैमरे नहीं हैं, जिससे अपराधी और पीड़ित का बयान रिकॉर्ड किया जा सके. पुलिस वालों के पास गाड़ियों की कमी है. जिसके अभाव में वे तुरंत घटना स्थल पर नहीं पहुँच पाते.

जबकि बलात्कार जैसे गंभीर और आपराधिक केस में घटना के घंटे भर के अंदर पीड़ित का बयान दर्ज हो जाना चाहिए. यदि पीड़ित का एक घंटे के अंदर बयान ले लिया जाये तो वह 90 फीसदी सही बयान देती है. इस बयान की वीडियो रिकॉर्डिंग भी होनी चाहिए. कोर्ट में भी इसी तरह वीडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए जिससे अपराधी दस बार अपना बयान न बदले.मैंने देखा है कि अपराधी कितना ही शातिर क्यों न हो मगर झूठ बोलते वक्त वो बनावटी ही लगता है. इस बात को जज तक आंक लेते हैं. मगर उसी झूठ को बारबार बोला जाए तो फिर वो सच ही लगने लगता है.

अच्छी बात रही कि निर्भया वाले केस में न केवल आधुनिक यंत्र की सहायता ली गई बल्कि इसमें साइंटिफिक इंवेस्टिगेशन को भी शामिल किया गया. इन सब वजह से केस को हल करने में आसानी हुई. ऐसा हर केस में होने लगे तो पीड़िता को इंसाफ जल्दी मिल जाए.यदि इन बातों पर ध्यान दिया जाए और महिलाओं पर होने वाले अपराधों को रोकने के लिए संवेदनशीलता दिखाई जाए तो स्थितियों को संभाला जा सकता है, नहीं तो महिलाओं को सही से कटे हर दिन के लिए ऊपर वाले को धन्यवाद कहना चाहिए. 

 

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील है.)

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