आरती, फरीदाबाद:
कुछ दिनों पहले मेरे पड़ोस में एक परिवार रहने आया. मैं खुश हो गयी चलो अच्छा हुआ कोई पड़ोसी आया तो मेरा अकेलापन थोड़ा दूर होगा. मैं उत्साह में थी और उनके घर की तरफ अक्सर देखती कि दरवाजा खुले तो जाकर अपना परिचय दूं और दोस्ती का हाथ बढ़ाऊं, लेकिन शुरु के दो-चार दिन उस घर के दरवाजे पर ज्यादा हलचल नहीं दिखी. बस घर की महिला कूड़ा निकालने के लिए दरवाजा खोलतीं और बंद कर देती. मेरा उत्साह अब ठंढ़ा पड़ने लगा था लेकिन एक सप्ताह बाद दरवाजे की घंटी बजी, सामने वाली महिला थीं. मैं बहुत खुश हुई, उन्हें अंदर बुलाया, चाय बनाई और तुरंत ही सारी बातें पूछने और बताने लगीं.
अब हमारा अक्सर एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरु हो गया. हम साथ ही रहते, साथ बाजार जाते. उनका नाम सपना था. वे अब किसी भी समय हमारे घर आ जातीं, कभी कोई सामान तो कभी मेरी नई साड़ी मांग कर ले जातीं. शुरु-शुरु में तो मुझे अच्छा लगता और मैं खुशी-खुशी अपना सामान देती लेकिन बाद में उनका यह व्यवहार मुझे अजीब लगने लगा. मेरे पति और बच्चे भी कहने लगे कि यह क्या है वे रोज कोई न कोई सामान मांगने आ जाती हैं
इस बार जब वे मिक्सी मांगने आई तो मैंने कहा ऐसे रोज-रोज किसी से कोई भी चीज मांगना ठीक नहीं है तो वे बिना कुछ कहे मेरे घर से चली गईं. इस बात के कुछ दिनों के बाद मैं एक दिन बाजार से लौट रही थीं. मैं सीढ़ियों से ऊपर चढ़ रही थी अचानक मेरा पांव फिसल गया और मैं तेजी से लुढ़कते हुए नीचे पहुंच गई. मेरी चीख निकल गई थी, मेरे सिर से खून निकल रहा था और जब मैंने उठने की कोशिश की तो महसूस हुआ मेरा दायां पांव मैं नहीं हिला पा रही थी. दर्द और डर के मारे मैंने जोर-जोर से रोना शुर कर दिया.
उस समय वहां कोई नहीं था. संयोग से तभी सपना किसी काम से नीचे उतर रही थीं. उन्होंने मुझे देखा तो तुरंत आस-पास के कुछ और लोगों को बुलाया, मुझे तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया. सपना ने ही मेरे पति को ऑफिस फोन किया, वे भी घबराए हुए हॉस्पिटल पहुंचे. रात में भी सपना मेरे साथ हॉस्पिटल में ही रुकीं. मुझे तीन दिन वहां रहना पड़ा, इस दौरान वे मेरी खातिरदारी करती रहीं.
जब मुझे घर लाया गया तो सपना ने ही मेरे लिए नाश्ता बनाया. अपने घर जाकर मेरे पति और बच्चों के लिए नाश्ता भिजवाया. हॉस्पिटल और घर के चक्कर में वे भी बेहद थक गई थीं लेकिन अपने पति का सहारा पाकर वे लगातार हमारी मदद करती रहीं. मैं और मेरे पति उनके व्यवहार को देखकर अपने व्यवहार पर शर्मिंदा हो रहे थे. जब मैंने और मेरे पति ने दोनों पति-पत्नी को धन्यवाद कहना चाहा तो उन्होंने कहा कि आप कैसी बात करते हैं, यहां आपके सिवा हमारा कोई नहीं है, हम आप पर अपना अधिकार समझते हैं इस नाते कर्तव्य भी तो निभाना पड़ेगा. अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होने की बारी हमारी थी..
और तुम भी बिना कुछ कहे दे देती हो. मुझे भी उनकी बात ठीक लगी.