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प्रीतपाल कौर:

बहुत पुरानी एक कहावत है कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था. अब हकीम लुकमान कौन थे और उनके पास किस किस चीज़ का इलाज था ये बात लम्बी चर्चा का विषय बन सकती है जो आज की इंस्टेंट सवाल जवाब वाली पीढ़ी को शायद रास न आये. लेकिन एक बात तो तय है कि दहशत भी कुछ कुछ शक के ही नक़्शे क़दम पर चल निकली है.

आप किसी आदमी पर या समाज के किसी वर्ग के दिलोदिमाग पर काबिज़ होना चाहते हैं और आप के हाथ में कोई जादू की छडी नहीं है जो आनन-फानन में उनके सारे मसलों को हल कर दें तो बेहतर होगा आप उनको घेर कर एक ऐसे दायरे में ले आयें जो चारों तरफ से महफूज़ हो और वे उससे बाहर निकलने न पायें.

एक ऐसा दायरा जो उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की तो पूर्ति कर दे, लेकिन उनसे परे उन्हें कुछ हासिल करने का मौका न दे. एक पारदर्शी धुंधली दीवार के पार जो हो रहा हो, जो सुविधाएं या विलासिताएं वे चाहते हैं उन्हें नज़र तो आती रहें लेकिन उनकी पहुंच उन तक न हो पाए. बस आप को इतना भर करना है. बाकी का काम वे खुद कर लेंगे.

ऐसे दायरे में फंसे लोग अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जल्दी ही उकता जायेंगे और उस मृग मरीचिका के पीछे तत्परता से लपक लेंगे जो आपने उनको दिखा दी है लेकिन उनकी पहुंच से तकरीबन बाहर ही है. वजह सिर्फ इतनी सी कि वह सब उनकी जेब और सपनों से परे की चीज़ है, और मान लो किसी तरह येन- केन- प्रकारेण उन्होंने उसे हासिल कर भी लिया तो आखिरकार अपनी तंग हाल ज़िन्दगियों की जेल में क़ैद रह कर वे उसे लम्बे समय तक निभा नहीं पाएंगे.

ज़ाहिर है वे एक ऐसी दहशत भरी दौड़ में फंस कर रह जायेंगे जो उनकी रोज़ मर्रा की ज़िंदगी का एक ज़रूरी तत्व बन कर रह जाएगी. क्योंकि जो विलासिता या फिर यूं कहें कि ऐश के सामान उन्होंने किसी तरह हासिल किए हैं उनके छिन जाने का अंदेशा रोज़ बना रहेगा और यही दहशत उन्हें वो सब करने पर मजबूर करेगी जो वे आम तौर नहीं करना चाहते.  बस वे आपके पंजे से कभी आज़ाद नही होने पाएंगे.

दहशत गर्दी की पहली और आखिरी शर्त यही होती है कि आजादी छीन लेना. यानी दहशत कामयाब, आज़ादी स्वाहा. आखिर यूं ही तो नहीं कहा जाता कि कुछ खोने का डर ही इंसान को कमज़ोर बनाता है. जिसके पास खोने को कुछ ना हो वही सबसे ताकतवर होता है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और कहानीकार हैं)

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