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प्रतिभा ज्योति:

उसके हाथ से ज़िंदगी फ़िसल गई…हम सिर्फ़ हाथ मलते रह गए, देखते रह गए..दरअसल हमने देखा भी नहीं.उसकी ज़िंदगी का संगीत थम गया ,हम अपने शोर में ,अपनी जिंदगी की भागदौड़ और आपाधापी के कोलाहल में ना तो उसका संगीत सुन पाए और ना ही उसकी चीख.

संगीता ने ज़िंदगी की आखिरी सांस भी छोड़ दी.संगीता वर्मा ने  दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के बर्न वार्ड में चुपचाप से अलविदा कह दिया.आखिरी वक्त में उसे शायद चुप्पी ही ठीक लगी होगी ,क्योंकि उसे समझ आ गया था कि हमारे लिए उसकी चीख का भी कोई मतलब नहीं है. वो पिछले पन्द्रह साल से चीख रही थी. पेशे से टीचर भले ही थी ,लेकिन वह अपने ही लोगों को ज़िंदगी का सबक नहीं सिखा पाई.

गाजियाबाद में उसकी शादी हुई थी .पढ़ी लिखी थी.सरकारी स्कूल में टीचर थी और दो-दो बेटे भी पैदा किए थे उसने ,लेकिन कुछ काम नहीं आया.आरोप है कि उसके पति और ससुराल वाले लगातार दहेज के लिए दबाव डालते रहते थे .शादी के पन्द्रह साल बाद भी उसके पति के लिए संगीता की जान से ज़्यादा पच्चीस लाख रूपए कीमती थे जो हर हाल में चाहिए थे.लेकिन उससे भी अहम कि संगीता अपने परिवार वालों को बार–बार अपना हाल बयान करती थी, दुखड़ा-तकलीफ सुनाती थी, लेकिन हर परिवार की तरह उसके मां-बाप ने भी उसे ससुराल को ही अपना घर समझने और वहां यहां एडस्ट करने की बात कहते रहे. वह उऩसे कह रही थी कि उसे तलाक दिलवा दीजिए,लेकिन उसे अपने घर में इस डर से जगह नहीं मिल पाई कि समाज क्या कहेगा ?

आख़िरकार संगीता पर एसिड या डीजल जैसा ज्वलनशील पदार्थ फैंक दिया गया और वो 90 फीसद जल गई. एक सप्ताह तक सफदरजंग अस्पताल में ज़िंदगी और मौत के बीच लड़ती रही. लड़ने की महारथ तो उसमें थी ही, वो हमारी तरह कमज़ोर नहीं थी ,डरपोक भी नहीं थी, अकेले लड़ी, खूब लड़ी ,लेकिन हार गई,  क्योंकि हम सब ने, उसके परिवार के लोगों ने उसका साथ नहीं दिया. समाज के लोग उसके साथ खड़े नहीं हुए और जब वो अस्पताल में मौत से जूझ रही थी तब भी हमने उसकी सुध नहीं ली.

संगीता भले ही चली गई, लेकिन बहुत से सवाल छोड़ गई, हमें झकझोरने के लिए, हमे जगाने के लिए. क्या हम बेटियों को सच में प्यार करते हैं? क्यों हम बेटियों के साथ खड़े नहीं होते? क्यों समाज का डर हमें अपनी बेटी की ज़िंदगी से ज़्यादा वज़नदार लगता है? क्यों हम सब लोग उसके जाने के बाद झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं? क्यों कानून और पुलिस प्रशासन का डर नहीं बचा है? प्लीज, अब संगीता के लिए इंडिया गेट पर मोमबत्ती मत जलाइएगा? हां,यदि अब भी आप जागने को तैयार हैं तो जागिए, सुनिए, उस चीख को, जो हर गली मोहल्ले में दबाई जा रही है. बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ के नारे और बेटियों के साथ सेल्फी खिंचाने भर से काम नहीं चलेगा. बेटी से अगर सच में प्यार करते हैं तो हिम्मत कीजिए उसके साथ खड़ा होने की और हिम्मत दीजिए उसे ताकत से खड़ा होने की. यह आखिरी वारदात नहीं हैं और यह भी मत समझिए कि आपके घर में ऐसा नहीं हो सकता. हम चाहते हैं कि ऐसा ना हो तो जाग जाइए,किसी का इंतज़ार मत कीजिए.

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