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प्रतिभा ज्योति:

किसी भी समाज या मुल्क के विकास का पैमाना वहां महिलाओं की हालत, स्वास्थ्य, राजनीतिक ,सामाजिक और आर्थिक भागीदारी को लेकर तय किया जा सकता है. यह हकीकत है कि हिन्दुस्तान में महिलाओं के हालात में लगातार बदलाव आया है, लड़कियों के पढ़ने लिखने को लेकर भी रवैया बदला है, फिर भी सामाजिक या राजनीतिक स्तर पर सूरत ज़्यादा नहीं बदली है. सरकार के ही आंकड़ों को देखें तो जो सबसे बड़ी चिंता का विषय हो सकता है, वह है कि कामकाज में महिलाओं की  हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है और पिछले एक दशक में इसमें करीब दस फीसद की गिरावट आई है. हालांकि कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि  यह आगे बढ़ने से पहले की गिरावट है. उनके हिसाब से अगले कुछ  वर्षों में इसमें बढ़ोतरी होगी.

पिछले साल एसोचैम ने एक स्टडी कराई थी, उसके मुताबिक 2000 से 2005 तक महिलाओं की कामकाज में  भागीदारी 34 से बढ़कर 37 फ़ीसद हो गई थी, लेकिन उसके बाद इसमें लगातार गिरावट आई और 2014 तक यह 27 फ़ीसद तक पहुंच गईं. इसके साथ ही अहम चिंता की बात यह भी हो सकती है कि गांवों में जहां पुरुषों और औरतों के बीच हिस्सेदारी का फ़र्क 30 फ़ीसदी था, वह शहरों में 40 फ़ीसदी  हो गया है यानी गांवों के मुकाबले शहरों में कम औरतें काम कर रही हैं. यदि इस फर्क को दूसरे देशों के मुकाबले देखा जाए तो तस्वीर ज़्यादा भयावह लग सकती है. ब्रिक्स देशों की ही तुलना की जाए तो इसमें चीन में 64 फ़ीसदी, ब्राज़ील में 59 फ़ीसदी, रूस में 57 फ़ीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 45 फ़ीसदी और भारत में सिर्फ़ 27 फीसदी है. दूसरी तरफ महिलाओं को समान काम के लिए भी पुरुषों के मुकाबले पैसा कम मिलता है. यानी काम समान लेकिन वेतन में अंतर. वहीं महिलाओं को सबसे ऊंचे पदों पर बैठे देखना हमें सुहाता नहीं है.

सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक देश में महिलाओं की औसत हिस्सेदारी 2010-11 में 36 फ़ीसदी रही थी, लेकिन 31 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में यह राष्ट्रीय औसत से कम थी. सिर्फ़ आंध्रप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और सिक्किम में महिलाओं की भागीदारी ज़्यादा थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी बड़ी वजहें हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक ताना-बाना है जिसमें महिलाओं को कामकाज के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, बल्कि उनके लिए तरह तरह की बाधाएं या कारण पैदा किए जाते हैं. इसमें एक कारण पति का ज़्यादा या अच्छा कमाना और दूसरा बड़ा कारण घर और बच्चों की देखभाल है.

समाजशास्त्रियों का मानना है कि देश में निजी क्षेत्र में भी महिलाओं की हिस्सेदारी को बढ़ावा नहीं दिया जाता. उनका मानना है कि सरकारों ने लगातार महिलाओं के कामकाज के लिए कई कानूनों में सुधार किया है लेकिन ज़्यादातर क्षेत्रों में इसका उल्टा असर हुआ है. निजी क्षेत्र में मालिक महिला समर्थक कानूनों को अपने लिए सिरदर्द समझते हैं. जैसे  दफ्तरों या कामकाज के क्षेत्र में यौन शोषण रोकने का कानून, महिलाओं के लिए  नाइट शिफ्ट में काम करने पर दी जाने वाली ज़रुरी सुविधाएं, अभी मातृत्व सुरक्षा कानून में अवकाश को बढ़ाकर 26 सप्ताह करना आदि ऐसे अहम बदलाव हैं जो कामकाजी महिलाओं को तो मदद करते हैं लेकिन निजी  क्षेत्र के लोग मानते हैं कि यह बेवजह की ज़िम्मेदारियां वे अपने सिर क्यों लें? जबकि इटली जैसे देशों ने तो अब महिलाओं के पीरियड्स के दौरान तकलीफ को ध्यान में रखते हुए तीन दिनों की छुट्टी का प्रावधान भी कर दिया है.

बहुत से छोटे उद्योग महिलाओं के छोटे बच्चों को लिए क्रेच खोलने, काम के दौरान उन्हें एक घंटे की छुट्टी देने जैसी ज़रूरी सुविधाएं देने को भी तैयार नहीं हैं. इसमें सिर्फ मालिकों का ही नहीं, सहकर्मियों और अधिकारियों का व्यवहार भी महिलाओं के पक्ष में नहीं जाता है.

राजनीतिक तौर भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की औसत हिस्सेदारी अभी तक सिर्फ़ दस फीसदी है , अदालतों की तस्वीर भी ज्यादा अच्छी नहीं हैं. इसका मायने यह है कि महिलाओं की आवाज़ उठाने वाले प्लेटफार्म्स पर भी महिलाएं ताकत के तौर पर नहीं हैं और पुरुष आमतौर पर इसे आगे बढ़ाने में सक्रिय नहीं लगते. संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण का बिल 21 साल बाद भी पास नहीं हो पाया है.

इतना तय है कि कामकाज में जब तक महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं बढ़ेगी, महिलाओं की जेब में खुद का पैसा नहीं होगा तब तक वे आत्मनिर्भर नहीं होंगी. उनके आगे बढ़ने के रास्ते पर बहुत से स्पीड ब्रेकर बने रहेंगें, क्या हम सड़कों पर हाईवे और एक्सप्रेस वे बनाने के अलावा महिलाओं को भी तेज़ रफ्तार देने के लिए तैयार हैं, यह सवाल सबसे पहले खुद से पूछिए.

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